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४ : सुख-लोलुप कौए की कथा :
जम्बूकुमार द्वारा निराकरण
पत्नी समुद्रश्री के मन्तव्य का जम्बूकुमार पर तनिक भी प्रभाव नही हुआ । उनका विरक्ति का भाव और अधिक प्रवल हो उठा । उन्होंने उस उपलब्ध सुख की चर्चा की, जिसके वरण को समुद्रश्री ने श्रेयस्कर बताया था और कहा कि हे प्रिये ! ये सुख प्रवञ्चना के अतिरिक्त कुछ भी नही हैं। इन विषयो मे सुख का भ्रामक आभास मात्र होता है, ये यथार्थ आनन्द के साधन नही है । उनका वाह्य रूप बडा मोहक प्रतीत होता है, किन्तु इनके भीतर विषम दुखमयता छिपी रहती है। जब यह बाह्य आवरण उतर जाता है तो पीड़ा दायक विषय अपने कठोर पाश मे व्यक्ति को ऐसा जकड़ लेते हैं कि वह छटपटाता रह जाता है, विवश हो जाता है । दुख ही उसका प्रारब्ध हो जाता है, ऐसा अनन्त दुख कि जिसके प्रभाव क्षेत्र से बाहर निकल आना फिर मनुष्य के वश मे नही होता । अत हे सुमुखी ! सुनो-यह तुम्हारा भ्रम है कि जागतिक सुखो को न त्यागने मे ही विवेकशीलता है। वस्तुतः विवेकशीलता तो इसमे है कि इन छद्म-सुखो (तथाकथित) की प्रवचना से जितना शीघ्र सम्भव हो छुटकारा पा लिया जाय । विवेकशीलता इसमे है कि मनुष्य अनन्त और वास्तविक सुख प्राप्ति के लिए प्रयत्न करे, साधना के प्रति उन्मुख हो । सुनो