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३ : बाल-जीवन
अब ऋपभदत्त और धारिणीदेवी के जीवन मे रस ही रम था। धारिणीदेवी की गोद मे जम्बूकुमार के रूप में मानो समस्त सुखो का सार ही किलकारियाँ भर रहा था ।, द्वितीया के चन्द्रमा की भांति यह नवजात शिशु, विकसित होने लगा। उसी भाँति उसके सौन्दर्य और कान्ति में भी वृद्धि होने लगी और हर्ष की चाँदनी श्रेष्ठि-प्रासाद मे अधिकाधिक रूप में व्याप्त होने लगी। घुटनो के बल चलते जम्बूकुमार को देखकर माता धारिणी को तो ऐसा अनुभव होने लगता था मानो उसकी चिरपोषित अभिलाषा ही देह धारण कर उसके आँगन मे विचरने लगी है । कभीकभी उसकी दृष्टि पुत्र के मुखमण्डल पर केन्द्रित हो जाती और उसका मन पुत्र के भावी स्वरूप की कल्पनाओ मे खो जाता । ऐसे क्षणो मे वह बालमुख उसके सामने से अदृश्य हो जाता और एक भव्य व्यक्तित्व वाला ओजस्वी युवक उसका स्थान ले लेना था । उसका मन अत्यधिक प्रमुदित हो उठता । धारिणीदेवी जम्बूकुमार के भावी जीवन की योजनाओ मे लग जाती और काल्पनिक सुखो की परिधियाँ उत्तरोत्तर व्यापकतर होती जाती। उसकी कामना थी कि अनेक वधुओ की पायले उसके भवन को गुजित कर देगी और नन्हे-मुन्ने शिशुओ की शुभ किलके अद्भुत सुखद उजाला चकाचौध सी उत्पन्न कर देगा। मां धारिणीदेवी के