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गृहत्याग का निश्चय एवं विवाह स्वीकृति | ४३
ही जागरित हो जाती है, वोध प्राप्त कर अनुकूल आचरण के लिए कटिबद्ध हो जाती है । पूज्यवर ! मेरी स्थिति कुछ ऐसी ही है । आर्य सुधर्मास्वामी के प्रथम प्रवचन से ही मेरे सुसंस्कार सजग हो गये हैं और मेरा भावी मार्ग निश्चित हो गया है ।
जम्बूकुमार कुछ क्षण मौन रहकर पुनः मुखरित हुए । उन्होने अपनी धारणा की पुष्टि के लिए एक प्रसंग सुनाया - किसी समय एक नगर मे एक गणिका रहा करती थी । उसकी रूपश्री की ख्याति दूर-दूर के प्रदेशो तक व्याप्त थी । सगीत - नृत्यादि कलाओ मे भी वह अद्वितीय थी । हजारो-लाखो सम्पन्न रसिकगण उसके लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर देने को तत्पर रहा करते थे । दूर-दूर से ऐसे लोग उसके नृत्यागार मे पहुँचा करते थे और अतुल धनराशि अर्पित कर स्वयं को धन्य समझा करते थे । उसके प्रशसको की प्रायः प्रतिदिन भीड़ लगी रहती थी । अनेक श्रेष्ठिपुत्र, राजपुत्र आदि भी उसके प्रशंसक थे और उसकी सभा की शोभा वढाया करते थे । गणिका को समर्पित करने के उद्देश्य से लाया गया धन जब समाप्त हो जाता "तो वे अपने निवास स्थानो के लिए प्रस्थान करते । गणिका अपार-अपार वैभव की स्वामिनी हो गयी थी । उसके यहाँ की एक विशिष्ट परम्परा यह थी कि जब रसिक जन उसके यहाँ से विदा होते, तो वह स्मृति-चिन्ह के रूप अपना कोई आभूषण उन्हे अवश्य भेट करती थी । इसके लिए भी प्रथा यह थी कि विदा होने वाले से ही वह पूछा करती थी कि कौन-सा आभूषण वे ले जाना चाहते है और किसी की भी याचना को उसने कभी