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७ : विवाह एवं पत्नियों को प्रतिबोध
ऋषभदत्त का सारा भवन अब सजने लगा था। विवाह की निश्चित तिथि ममीप आने लगी थी। आठो कन्याओ के पिताओ को यह शुभसन्देश भिजवा दिया गया था। कन्या-पक्षो मे भी मंगल-गान होने लगे, विवाह की तैयारियां होने लगी और मर्वत्र उत्साह विखरने लगा। स्वय कन्याओ की मानसिक उत्फुल्लता का तो कहना ही क्या | कभी वे सलज्ज हो उठती, तो कभी प्रियतम से मिलन का अवसर समीप पाकर उमगित हो उठती । जम्बूकुमार के मन की गति बडी अद्भुत थी। वे शान्ति का अनुभव नहीं कर पा रहे थे । वे सोचते कि ऐसे विवाह का क्या औचित्य है, जिसके तुरन्त पश्चात् वर द्वारा साधु जीवन ग्रहण कर लिया जाना पूर्व निश्चित हो ! विवाह-प्रसग से मेरे जीवन के भावी स्वरूप पर तो कोई प्रतिकूल प्रभाव नही होने का, किन्तु मेरे साधु हो जाने के कारण उन नव-वधुओ के जीवन पर भी क्या कोई प्रभाव नही होगा वे कितनी असहाय और दीन हो जायेंगी ! यह उचित नहीं है कि उन्हे इस तथ्य से अवगत नही किया जाय । उनका इस विषय में पूर्व सूचित होना अनिवार्य है । अभी तो अवमर है। यदि यह परिस्थिति उन्हे उपयुक्त प्रतीत नहीं होगी, तो वे इस सम्बन्ध को अस्वीकार कर सकती है । कन्यामो को अन्धकार में रखना अनुचित है, मत्यशीलता के