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अंगारकारक की कथा | ८९
शेष रह गयी थी। जलाभाव के कारण भयंकर तृषा का कष्ट सहते-सहते अगारकारक असहाय हो गया था। विवशतः वह उस कीचड को चाटने लगा। भला इससे भी कही उसकी तीव्र तृषा की तुष्टि सम्भव थी । परिणाम तो सुनिश्चित था । प्यासा, प्यासा ही रह गया। समय के साथ-साथ उसकी प्यास और प्यास के साथ उद्विग्नता बढती ही बढती चली गयी।
अपनी कथा समाप्त करते हुए पल भर के विराम के उपरान्त जम्बूकुमार ने पत्नी पद्मश्री को सम्बोधित करते हुए अपने मन्तव्य को स्पष्ट किया। उन्होने कहा कि प्रिये । सासारिको की दशा उस अगारकारक के सदृश ही है । सुखो की तृष्णा के अधीन होकर लोग अपार वैभव, सम्पदा, सुख-सुविधाओं का उपभोग करके भी असन्तुष्ट रह जाते हैं, उनकी अतृप्त प्यास इससे बुझती नही । सच्चे सुख की प्राप्ति की कामना पूर्ण नहीं हो पाती । इसका मूल कारण यह है कि जिस प्रकार अगारकारक ने स्वप्न मे इतना जल पी लिया, फिर भी प्यासा बना रहा; क्योकि वह जल नही था, जल का छलावा मात्र था । जल का अवास्तविक अस्तित्व मला प्यास कैसे बुझा सकता है। ठीक उसी प्रकार हम लोग जिन्हे सुख के साधन समझते है वे सुख के सच्चे साधन नही है । वे सुख हो वास्तविक सुख नही है। वे तो सुख का आभास मात्र कराते है। ऐसी अवस्था मे ये सुख हमे सन्तोष और शान्ति कैसे दे सकते हैं ! इन सुखो की अवास्तविकता तो इसी से प्रकट हो जाती है कि ये घोर और अछोर दुखो के जनक होते है । वास्तव मे ये दुख ही है. जो स्वय पर सुखो का आवरण डालकर आ जाते हैं-ऐसा