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६२ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार
समुद्रश्री को अपनी समर्थता का बडा गर्व था। उसने अपने तर्क के एक ही आघात से जम्बूकुमार के व्रत को ध्वस्त करने का निश्चय कर लिया और अनायास ही उसके मुख-मण्डल पर एक विचित्र आभा के रूप मे उसका यह निश्चय प्रतिविम्बित हो गया। ___जम्वूकुमार को सम्बोधित करती हुई समुद्रवत् गम्भीर स्वर मे समुद्रश्री मुखरित हुई-स्वामी | लोक-परलोक मे अनेक श्रेष्ठ वस्तुएँ है, परन्तु ये मभी वस्तुएँ सभी के लिए नही बनी हैं । जिसकी जैसी पात्रता होती है उसे वैसी ही वस्तु उपलब्ध होती है । प्राय व्यक्ति अपने सामर्थ्य से बाहर का लक्ष्य निर्धारित कर लेता है। परिणामत उसे वह वस्तु तो मिल ही नही पाती साथ ही जो वस्तु उसे सहजत. उपलब्ध थी-उसे उससे भी हाथ धोना पडता है। हे स्वामी । ऐसी अवस्था मे उसके शेष जीवन मे निराशा, पछतावा और दु.ख ही भरा रह जाता है और मेरी मान्यता है कि आप भी इसी दुष्परिणाम की प्राप्ति की ओर अग्रसर हो रहे हैं । हम सभी आपके मगल के लिए चिन्तित हैं। मैं आपसे अनुनयपूर्वक आग्रह करती हूँ कि साधना के इस विकट मार्ग पर आरूढ न होइये । यह मार्ग आपके लिए नही है और आप इस मार्ग के लिए नही है। कृपा कर एक बार पुन विचार कर लीजिए कि जिस कल्पित सुख के लिए आपका मन लालायित हो उठा है उसकी प्राप्ति का साधना-पथ कितना कटकाकीर्ण है, कितना कठिन है । अपने इस कोमल गात्र को लेकर इस मार्ग पर लक्ष्य तक पहुंचना क्या आपके लिए सम्भव है । तनिक सोचिए कि क्या आप इस