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८८! मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार
की पीडा से दूर-काफी-दूर होता गया। स्वप्निल जगत् में वह विचरण करने लगा।
अगारकारक ऐसे लोक मे पहुंच गया जहाँ जल ही जल था। जलाशय, मरिताएं, कूप सब जल से आपूरित थे। उसने बडे आनन्द के साथ जल पिया और परितोप का अनुभव किया । किन्तु तृषा थी कि पुन भडक उठी। फिर से वह जल का पान करने लगा । सभी जलाशयो, सरिताओ, कूपो का जल उसने पी डाला, किन्तु उसे तृप्ति नहीं हुई। उसकी तृषा शान्त नहीं हुई। कितना जल वह पी चुका था-इसका कोई अनुमान नही लग सकता, किन्तु फिर भी वह ज्यो का त्यो तृपित था । इसी तृषा की बेचैनी में उसकी नीद उड गयी । वह पुन इम लोक मे उतर आया जहाँ भीषण तृषा थी और जल की एक बूंद भी नही । कुछ ही क्षणो पूर्व उसने राशि-राशि जल पी लिया था (स्वप्न मे) किन्तु उसकी प्यास तो बुझी नही । अब उसकी पीड़ा ने उसे पुन. सचेष्ट किया । वह लेटा नही रह सका । उठा और लडखडाता हुआ जल की आशा मे और आगे बढा । एक वृक्ष के नीचे उसे दूर से ही पोखर सा दिखायी दिया। उसके चरणो मे विद्युत की सी शक्ति आ गयी। वह लपक कर वहाँ पहुंच गया। उसे पोखर मे जल की उपस्थिति देखकर हपं हआ। अपने गले को तर करने की उत्कट अभिलापा के साथ उसने जल की ओर हाथ बढ़ाया और उसकी आशा पुन ध्वस्त हो गयी। यह उसका भ्रम ही था कि पोखर मे जल है । अगारकारक की अजलि मे जल के स्थान पर थोडा सा कीचड़ आ गया था, जिसमे तनिक मी आर्द्रता ही