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लोभी वानर की कथा | ७७
चाहे, किन्तु इनकी मृग-मरीचिका मे पडकर कही आपकी स्थिति ऐसी न हो जाय कि न इधर के रहे, न उधर के । इस समय मुझे उस वानर की कथा स्मरण आ रही है जिसने सौभाग्य से नर देह प्राप्त कर ली, किन्तु उस उन्नत स्थिति से असन्तुष्ट होकर वह देवता बनने की साध रखने लगा था और इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि उसके हाथ से नरदेह का अवसर भी जाता रहा । उसे पुनः वानरदेह प्राप्त करनी पड़ी और नाना भाँति के कष्ट भोगते हुए उसे जीवन भर पछताते रहना पड़ा। प्राणनाथ ! मै वानर की वह कथा आपको सुनाती हूँ--
किसी घने वन मे स्वच्छ जल से भरी एक नदी बहा करती थी। वन मे एक स्थान पर इस नदी मे एक द्रह बना हुआ था। जो फैलाव मे भी बड़ा था और गहरा भी था। इस द्रह मे ग्रीष्म ऋतु मे भी सदा ही निर्मल जल लहराता रहता था । भाँतिभांति के फल-फूलो, लता-द्र मो से यह वन अत्यन्त समृद्ध और शोभाशाली था। पक्षियो के कलरव से तो वन का चप्पा-चप्पा गुजरित रहा करता था। द्रह के तट पर एक विशाल और सघन वृक्ष था, जिस पर एक वानर-युग्म का निवास था । भांति-भांति के सरस और स्वादिष्ट फलों का भोजन और द्रह का शीतल जल, क्रीडा के लिए इस वृक्ष की अनेक छोटी-बड़ी शाखाएँ-सभी प्रकार का सुख उस जोडे को वहां उपलब्ध थे। कोई कठिनाई, कोई समस्या नहीं ! कदाचित् दीर्घकाल से ये वानर-वानरी इस वृक्ष को ही अपना निवास स्थान बनाये हए थे । एक दिन, दोनो इस वृक्ष की शाखाओ मे कुलाचें भर