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८२ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार
सब कुछ उसे सुलभ हो गयी । वह राज-रानी के रूप में जीवन विताने लगी थी।
इधर लोभी वानर की दुर्दशा की भी कोई सीमा नहीं रही। कुछ दिन तो वह वानरी के वियोग मे दुखी होकर एकाकी भटकता रहा और एक दिन किसी मदारी ने उसे पकड़ लिया। अव उसके गले मे पट्टा और रस्सी पड़ गयी। वन्य जीवन भी अब उसके लिए सुलभ नही रहा । अव वह परतन्त्र होकर नगरो और गांवो की गलियो मे घूमता रहता, मदारी के सकेत पर नाचता रहता । उसकी सारी स्वच्छन्दता नष्ट हो गयी। सयोग से मदारी अपने वानर के साथ एक दिन उसी नरेश की राजधानी मे पहुँचा । मदारी ने वानर को अच्छी तरह प्रशिक्षित किया था। वानर भी खून मजेदार तमाशे करता था और दर्शको को वडा आनन्द आता था। नगर मे इस वानर के करतबो की प्रशसा होने लगी। एक दिन नृपति ने इस मदारी को राजभवन में भी बुलाया।
राजा के समीप सिंहासन पर बैठी राजरानी को देखकर वानर तुरन्त ही पहचान गया कि यह तो मेरी प्रिया वानरी ही है। वानर का मन क्षोभ और घोर वितृष्णा से भर उठा। प्रायश्चित्त का भाव जागकर अत्यन्त तीव्र हो गया । उसका मन बुझ सा गया, किन्तु वह तो परतन्त्र था। अपनी आन्तरिक पीडा को दबाकर उसे मदारी के सकेतानुसार नाचना पड़ा। राजा वड़ा प्रसन्न हुआ। रानी ने भी वानर के करतबो की