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५६ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार देगा; दूसरे का त्याग यह सुफल तो देगा, किन्तु माता-पिता के प्रति अहितकारी बनाकर उन्हे 'कुपुत्र' का विशेषण देगा । दोनो ही परिणाम उनके लिए अवाछनीय थे। ऐसी स्थिति में अन्तर्द्वन्द्व का होना स्वाभाविक ही था। विवेकशील जम्बूकुमार ने शीघ्र ही इस द्वन्द्व की स्थिति को समाप्त कर दिया और एक ऐसे निर्णय पर पहुंचे कि जिससे दोनो पक्षो का समानान्तर रूप से रक्षण सम्भव हो गया । उन्होने स्वय को सयत करते हुए निवेदन किया कि मैं पिताजी और अपने वश के गौरव को ध्वस्त नही होने दूंगा माँ | आपकी और पिताजी की आज्ञा मेरे लिए सदा ही शिरोधार्य रही है और बड़े से बड़ा लक्ष्य मुझे अपने इस कर्तव्य से च्युत नही कर सकता। आपकी अभिलाषा को मैं पूर्ण करने के लिए तत्पर हूं। पिताजी के वचन की रक्षा अवश्य होगी, किन्तु मेरा भी एक अनुरोध है । मैं विवाह कर लूंगा, किन्तु उसके पश्चात् अपना मार्ग निर्णीत करने की मुझे स्वच्छन्दता होनी चाहिए । विवाह के तुरन्त पश्चात् मैं दीक्षा ग्रहण कर लूंगा । फिर कोई प्रतिवन्ध नही हो । विवाह की इस प्राथमिक स्वीकृति से ही माता-पिता के कुम्हलाए हुए हृदय-सरोज पुन खिल उठे । हर्ष की लहरे उनके मुखमण्डल पर मचलने लगी और नेत्रो मे आनन्दात्रु छलकने लगे । माता धारिणीदेवी ने जम्बूकुमार के अनुरोध को यथावत् स्वीकार कर लिया । वह सोचने लगी र्थ कि जब आठ-आठ परम सुन्दरियाँ वधू रूप मे घर मे आ जाएँगी तं जम्बूकुमार का मन क्या उनकी रूपछटा से अप्रभावित रह सकेगा वे अपने कमनीय वचनो से ऐसा जादू करेगी कि जम्बूकुमार स्वः