________________
६६ { मुक्ति का अमर राही : जम्बूकूमार
लगी। वर ने आसनो की पक्ति मे मध्यासन को ग्रहण किया । वधुएं भी अपने-अपने आसनो पर बैठ गयी। वातावरण सहसा बोझिल और गम्भीर हो गया। कुछ क्षणो तक किसी ने कुछ नहीं कहा । जम्बूकुमार की स्थिति भी उस पक्षी की भांति थी जो उडान भरने के पहले अपने डैनो को तोल रहा हो । वधुएँ अपने पतिदेव के प्रथम सम्भाषण को सुनने के लिए उत्कठित थी । सबका ध्यान अभी जम्बूकुमार की ओर ही था और वे छिपी-छिपी दृष्टि से अपने पति के अपार सौन्दर्य को निहार रही थी। __जम्बूकुमार अपनी नवयौवना, रूपसी पत्नियो के साथ बैठे थे, सर्वत्र एक मादक वातावरण छाया था, विलास सामग्रियो का भी एक खासा जमघट था, किन्तु इन सबके प्रति जम्बूकुमार सर्वथा रुचिहीन थे। वे तो जल मे कमलवत् थे। विकार की कोई छोटी सी लहरी भी उनके मानस को स्पर्श नही कर पा रही थी। इस सारे सरस प्रसग की कोई भी प्रतिक्रिया उनके चित्त पर नही थी। यह क्षण उनके लिए तो वह पावन मुहूर्त था कि जब उन्हे अपनी आत्मोन्नति की यात्रा आरम्भ करनी थी। कुछ क्षण जम्बूकुमार अपने मन्तव्य को मन ही मन आकार देते रहे और फिर मिलन कक्ष की गम्भीर चुप्पी को भग करते हुए मुखरित हुए। उन्होंने कहा कि भव्य आत्माओ | सुनो, तुम्हे यह सब तो ज्ञात ही है कि कल प्रात काल ही मैं अपने पूर्व निश्चय के अनुसार गृह-त्याग कर सयम स्वीकर लूंगा। कदाचित् तुम्हे विस्मय होता होगा कि सुख-सुविधाओ भरा यह जीवन मेरे लिए उपेक्षा का विपय क्यो बन गया है। उपलब्ध सुखो को त्याग कर मैं स्वेच्छा