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विवाह एवं पत्नियों को प्रतिबोध / ६५
होने लगी । मगलगानो से ऋषभदत्त का प्रासाद गूंज उठा । शहनाई का अनवरत स्वर सभी के हृदयो के हर्ष को उजागर कर रहा था । सर्वत्र माधुर्य ही माधुर्य बिखर गया था ।
श्रेष्ठि ऋषभदत्त ने इस मगल अवसर पर अपने मित्रो, सम्बन्धियो को प्रचुर और मूल्यवान उपहार भेट किये तथा मुक्त हस्तता के साथ दीन-हीनो को दान दिया उसके जीवन मे प्रथम बार ही तो आया था। पारावार नही रहा ।
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ऐसा शुभ दिवस उसके हर्ष का भी
सध्या समय आठो वधुएँ एकत्रित हुई । रूप की दीप्ति से वे दमक रही थी । अत्यन्त मूल्यवान अलकारो का योग उस दमक को और अधिक अभिवर्धित कर रहा था । सुन्दर वस्त्रो मे गुड़ियाओ सी सजी ये दुल्हने परियो के समान लग रही थी । उनकी वाणी मे अद्भुत मधुरता थी । चापल्य और आकर्षक भगिमाएँ तो मानो रति को भी पीछे छोड़ देती थी । सारा कक्ष सुगन्धित द्रव्यो से सुवासित हो उठा था । भांति-भाँति के पुष्पो से सज्जित यह कक्ष सहसा स्तब्धता का केन्द्र हो गया । वर जम्बूकुमार के आगमन की सूचना भी यहाँ आ गयी थी । वधुओ के कान द्वार पर लग गये थे । प्रत्येक पदचाप पर उन्हें पतिदेव के आगमन की सभावना लगने लगती और हृदय तेजी से धड़क उठता । जब वर ने इस कक्ष मे प्रवेश किया तो उनका स्वागत करने को सभी वधुएँ अपने-अपने आसन से उठकर द्वार तक आयी, नतमस्तक रह कर मौन रूप मे ही उन्होंने अपने हृदय के समस्त अनुराग का समर्पण कर दिया | अब जम्बूकुमार आगे और वधुएँ धीरे-धीरे चलने