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४८ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार
कर लीजिए और हर्ष के साथ मुझे अपने अनुमति प्रदान कर दीजिए । निराश ऋषभदत्त कव तक अपने पुत्र को औचित्यपूर्ण उक्तियो को नकारता रहता ! वह निरुत्तर होकर दुख सागर मे डूवने-उतराने लगा। उसे सर्वत्र निराशा का घोरतिमिर ही दृष्टिगत होने लगा। उसकी वाणी कुण्ठिन होने लगी और मन छटपटाने लगा । उमके भीतर की शोककुलता मुख पर विपन्नता के रूप में प्रदर्शित होने लगी।
धारिणीदेवी अपने एक मात्र पुत्र से अतिशय स्नेह रखती थी। वह सहज ही मे जम्बूकुमार को प्रजित हो जाने के लिए कैसे अनुमति दे देती | उसका तो इस कल्पना से ही रोम-रोम काँप उठा था। उसने भी जम्बूकुमार को समझाकर अपना विचार त्याग देने के लिए प्रेरणा देने का प्रयत्न किया । अवरुद्ध कण्ठ से सर्वप्रथम उसने आपने पुत्र को सम्बोधित कर कहा कि प्यारे बेटे | तुम्हे यह अद्भुत विचार क्योकर आ गया। इस विचार को हम लोगो के लिए त्याग दो । तुम कदाचित् नही जानते कि तुम्हारा यह निश्चय हमारे हृदयो पर आरी चला रहा है। तुम इतने कठोर मत बनो वेटे | तुम्हारे लिए यह मार्ग नहीं वना है । देखो तुम्हारे पिताजी ने विपुल धन-सम्पदा का, अपार वैभव का मग्रह तुम्हारे लिए किया है । हम तुम्हारा सुखी जीवन देखने के अभिलाषी हैं । इन सुख-सुविधाओ का उपभोग करने के लिए ही तुम्हारा जन्म हुआ है। इस अतुल ऐश्वर्य के तुम्ही तो स्वामी होने वाले हो। इसका मनोनुकूल उपयोग-उपभोग करो और अपने जीवन को आनन्दपूर्ण वनाओ। तुम ही यदि गृह