________________
गृहत्याग का निश्चय एवं विवाह-स्वीकृति | ५१ है । तुम्हारी सुन्दर वधुओ की झाझरों से यह प्रासाद गुजरित हो जायगा। उनके मधुर-मधुर वचनो से हम सब के कानो मे मिश्री घुल जायगी और हमारा आँगन बाल-किलकारियो से भर उठेगा। यह भी तो जीवन का एक आनन्द है। तुम हमे इस आनन्द से क्यो वचित कर देना चाहते हो। मैं एक नारी हूँ, माँ हूँ और इस नाते मेरी जो कामनाएँ है-उनका भी तो कोई महत्व है। उसे यो झुठला कर मत जाओ बेटे ! हमारी बात मान लो ।
माँ के इस आग्रह से जम्बूकुमार और अधिक गम्भीर हो गये। इसका कारण यही था कि आग्रह माँ के द्वारा किया जा रहा था जिसके प्रति उनके मन मे गहन श्रद्धा और आदर का अटूट भाव था । जम्बूकुमार के लिए यह भाव एक पल के लिए विचलन का कारण बना, किन्तु वे तुरन्त ही पुन' दृढ हो गये। माता के इस नवीन आग्रह को उत्तरित करते हुए वे कहने लगे कि माँ ! धनऐश्वर्य सुखादि की भाँति ही स्वजन-परिजनो के ये नाते-रिश्ते है । केवल सासारिक सुख-दुःखो के ही साझीदार ये हो सकते है । वास्तविक चिर-सुखो की भोक्ता तो अकेली वही आत्मा होती है, जो इसकी पात्रता प्राप्त कर लेती है। उससे स्वजनो को वह उसमे साझीदार नही बना पाती। इसी प्रकार कर्मजनित दुखो को भी अकेले ही भोगना पड़ता है। फिर यह स्वजन-परिजनों का मेला भी तो सदा-सदा नहीं बना रहता। जब जिसकी बारी आती है, सदा के लिए सब को छोड़कर वह चल देता है । किसी की अभिलाषा का कोई प्रभाव उस परिस्थिति पर नहीं होता। तो फिर यदि मैं स्वेच्छा से ही सम्बन्धो का परिहार कर रहा हूँ