________________
गृहत्याग का निश्चय एवं विवाह-स्वीकृति | ४६
त्यागकर चले गये तो वत्स | फिर इस सारी सम्पत्ति का अर्थ ही क्या रह जायगा । फिर तो हम लोगो के लिए न तो इस स्वर्णराशि मे कोई आभा रह जायगी, न रत्नो मे कोई दीप्ति-न मुद्राओ मे कोई खनक शेष बचेगी और न ही इस प्रासाद मे कोई आकर्षण । बेटे ! हमारा आग्रह स्वीकार कर लो और आपने इस निश्चय को छोड़ दो।
माँ ! तुम कदाचित अपने विचार से सत्य ही कह रही होगी, किन्तु यह धन-दौलत सुख-ऐश्वर्यादि को देखने की वाह्य दृष्टि ही है जो मात्र प्रवचना है, छद्म है । धन का अस्तित्व कही भी स्थायी रूप से नही रहा । आज का धनाढ्य कल दरिद्र हो जाता है और रक से राजा हो जाने मे भी विशेष समय नही लगता। माया तो तरुछाया सो चचल होती है । इसके लोभ मे पड़कर मैं उस परमपद के अवसर को कैसे त्याग दूं जो एक बार उपलब्ध होकर फिर कभी छिनता नही । सम्पदा की वृद्धि की कामना का कभी अन्त नहीं होता और उस उपलब्धि के पश्चात् तो कोई कामना ही शेष नही रहती । आत्मा अनन्त सुख और अक्षुण्ण शान्ति के क्षेत्र में प्रविष्ट हो जाती है, और हे माता ! इस धन से सुलभ होने वाले सुख भी वास्तविक सुख कहाँ होते हैं । ये जागतिक और भौतिक सुख तो सुख की छाया है । जिन्हे आप सुख कहती हैं, उनके वास्तविक स्वरूप को मै पहचान गया हूँ। ये सुख घोर और अनन्त दुखो के जनक होते है ये सुख कपटपूर्वक अपने भीतर अपार दु.खो को छिपाये रखते हैं। सुखो का यह आवरण तो तरन्त ही छिन्न हो जाता है और तब दुख, के पंजो मे फंसकर