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४६ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार
मुझे गृहत्याग कर परिव्राजक बनने की अनुमति प्रदान कीजिए । आपके शुभाशीर्वादो से मेरा मार्ग सुगम और सफलता सर्व निश्चित् है । जम्बूकुमार इतना कहकर मौन हो गये और अपने माता-पिता की प्रतिक्रिया की प्रतीक्षा करने लगे । वे कभी माता की ओर निहारते तो कभी पिता के मुख मण्डल पर उनकी दृष्टि केन्द्रित हो जाती ।
पिता ऋषभदत्त को अपने पुत्र के इतने सज्ञान हो जाने के कारण सहज गौरव का अनुभव हो रहा था, किन्तु अत्यधिक खेद का अनुभव उन्हे इस परिस्थिति के कारण हो रहा था कि वारबार पुत्र साधु जीवन ग्रहण कर लेने की अनुमति के लिए प्रबल आग्रह कर रहा था । पुत्र के तर्कों को काटने की स्थिति मे भी वह नही था और वह पुत्र को प्रव्रजित हो जाने की अनुमति देने का साहस भी नही कर पा रहा था । ममता का बन्धन और कुल परम्परा के निरन्तरण की उत्कट अभिलाषा उसे ऐसा नही करने दे रही थी । पिता ने घोर निराशा की स्थिति मे भी एक बार और प्रयत्न करते हुए प्रबोधन के स्वर मे जम्बूकुमार से अत्यन्त कोमलता के साथ कहा कि प्रियपुत्र ! हमारे मनोभावो को भी तुम्हे दृष्टिगत रखना चाहिए । हमे बड़ी प्रसन्नता है कि मानव-जीवन के उच्चतम लक्ष्य को पहचान कर, उसकी प्राप्ति के लिए तुम सचेष्ट हो । ऐसा किसी-किसी व्यक्ति के लिए ही सम्भव हो पाता है । हमे तुम पर गर्व है, किन्तु हमारा तुमसे अनुरोध है कि गृहत्याग का अपना विचार इस बार तुम स्थगित रखो | आर्यश्री विभिन्न जनपदो मे धर्म प्रचार करते हुए आगामी बार