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, . वैराग्योदय ३७
“स्वीकार था। जम्बूकुमार का रथ उस पल मे उस पार निकल गया था। एक विशाल, शिला खण्ड अवश्य ही रथ परं आ गिरा। परिणामत. रथ के पृष्ठ भाग को तो कुछ हानि हुई, किन्तु जम्बू• कुमार बस बाल-बाल ही बच गये । सारथी बेचारा थर-थर काँप रहा था । अश्व भी इस अनायास प्रसग से अचकचा गया, किन्तु इस दुर्घटना ने जम्बूकुमार के मानस को उद्वेलित कर दिया। जीवन की क्षणभगुरता- का साक्षात् दर्शन उन्होने कर लिया । कुछ पल वे गम्भीर और मौन होकर अचल बैठे रहे और फिर उन्होने अन्य मार्ग से रथ को उद्यान की ओर लौटा ले चलने के लिए अपने सारथी को आदेश दिया । -सारथी कुछ समझ नहीं पा रहा था, किन्तु उसने आदेश का पालन किया । अश्व भी अब -स्वस्थ होकर पुन द्रुत वेग से दौड़ रहा था। रथ उद्यान के समीप से समीपतर होता चला और उद्यान-द्वार पर रथ के रुकते न रुकते ही जम्बूकुमार धरती पर उतर आये । क्षिप्रता के साथ उन्होने उद्यान मे प्रवेश किया और आर्यश्री की सेवा-मे-उपस्थित होकर वे करबद्ध मुद्रा मे अचंचल भाव से खडे हो गये । आर्यश्री को आश्चर्य हो रहा था कि जम्बूकुमार इतनी शीघ्रता से अनुमति प्राप्त कर कैसे लौट - आया। पूर्व इसके कि आर्यश्री अपना आश्चर्य व्यक्त करते, जम्बूकुमार ही बोल पडे, श्रद्धयवर | मैं आपसे आज्ञा लेकर अपने माता-पिता से अनुमति प्राप्त करने जा रहा था कि मार्ग मे एक ऐसी अघटनीय घटना हो गयी जिसने मुझे आर्यश्री के इस आदेश का पालन करने के लिए विवश कर दिया कि शुभ कार्य को तुरन्त कर लेना चाहिए, विलम्ब करना उचित नहीं और मैं