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वैराग्योदय ] ३५
हो और इसीलिए इस ओर आकृष्ट हुए हो । सुनो, साधु-जीवन बडा ही कठिन हुआ करता है । कठोर धरती पर शयन करना होता है, प्रकृति के शीतातप के प्रकोप सहन करने होते है, आँधीपानी के आघातो मे भी अविचलित रहना होता है । तुम कोमल गात्र हो । भला तुमसे यह सब कैसे सम्भव होगा ? किन्तु जम्बूकुमार ने दृढ़स्वर मे उत्तर दिया कि प्रभु । मैं इन समस्त कठिनाइयो से परिचित हूं और साधु-जीवन का निर्णय मैंने भलीभॉति सोच-समझकर ही किया है। जब संकल्प की दृढता होती है तो वाह्य बाधाएँ और कष्ट साधक के लिए अप्रभावी रह जाते है। और प्रभु ! मैं निवेदन करूँ कि मेरा संकल्प बडा दृढ है। अनन्त सुखो मे लक्ष्य के समक्ष ये मार्ग के कष्ट तो बड़े ही क्षुद्र है। इन्हे मैं अपने मार्ग मे बाधक नहीं बनने दूंगा। इन पर सुगमता के माथ मैं विजय प्राप्त कर लंगा । जम्बूकुमार की दृढ़ता से आर्यश्री बड़े प्रभावित हुए । वे आश्वस्त होकर बोले कि जम्बू ! सुनो, यदि ऐसा है, तो तुम वही करो-जिसके लिए तुम्हारा मन निर्देश दे रहा हो । शुभ कार्य मे विलम्ब अनुचित है । किन्तु वत्स जम्बू ! क्या तुमने दीक्षा ग्रहण करने के लिए अपने मातापिता से अनुमति प्राप्त करली है ?
जम्बू इस प्रश्न पर मौन रह गये। अभी तो उन्होने मातापिता के समक्ष अपनी इस अभिलाषा को प्रकट भी नही किया था। उनका मस्तक झुक गया, जिसका आशय आर्यश्री के प्रश्न का नकारात्मक उत्तर था । और आर्य सुधर्मास्वामी ने जम्बूकुमार को अपना शिष्य बनाने से इनकार करते हुए कहा कि पहले तुम्हें