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३६ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार
विधिवत् अपने माता-पिता से गृह त्यागार्थ अनुमति प्राप्त करनी होगी । तभी तुम्हारे लिए दीक्षा ग्रहण करना सम्भव होगा ।
जम्बूकुमार के समक्ष अब एक विकट समस्या थी । स्नेहमयी माता, वात्सल्यमय पिता उन्हे तदर्थ अनुमति नही देगे - इसका उन्हे विश्वास था । अपने प्रति अभिभावको के मन मे जो प्रेम था, इसकी गहराई से जम्बूकुमार अनभिज्ञ न थे । किन्तु वे दृढप्रतिज्ञ थे— साधु - जीवन ग्रहण करने के लिए, और इस कारण उन्होने निश्चय किया कि किसी प्रकार मुझे उनसे अनुमति भी प्राप्त करनी ही होगी । वे अपने तीव्रगामी रथ पर आरूढ होकर भवन की ओर चल दिये । वे शीघ्र से शीघ्र अपने पिता की सेवा मे उपस्थित हो, उनके समक्ष अपना मन्तव्य प्रकट कर देना चाहते थे । नगर के मार्ग अब तक व्यस्त हो चले थे, आवागमन की अधिकता के कारण रथ की द्रुतगति सम्भव न थी । अत उन्होंने अपने सारथी को अन्य मार्ग पर रथ मोड लेने का निर्देश दिया । यह अन्य मार्ग नगर के बाहर बाहर से होकर जाता था जिसे विशेष रूप से ही काम मे लिया जाता था । सामान्यत इसका उपयोग नही हुआ करता था । इस द्वार का सामरिक महत्व था । इम दुर्गम नगर द्वार पर शत्रु सहार के लिए विकराल भारी अस्त्रशस्त्र लटके रहते थे । इन शस्त्रो मे शतघ्ती, शिला, कालचक्र आदि भीषण सहारक शस्त्र भी थे । तीव्र वेग के साथ जब जम्बू कुमार का रथ इस नगर द्वार मे प्रविष्ट हुआ, तभी एक दुर्घटना घटी । वह सुदृढं द्वार भरभरा कर ध्वस्त हो गया । शत्रु सहार के लिए व्यवस्थित शस्त्र - गिर पडे । होनी को कुछ विचित्र ही
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