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बाल-जीवन | २१
होगा। उसके आश्चर्य का ठिकाना नही रहा जब उसने देखा कि अन्नभण्डार तो सर्वथा रिक्त पड़ा हुआ है। इतना अन्न, सारा का सारा दान दे दिया गया ।। किन्तु ऋषभदत्त ने अपनी कोई प्रतिक्रिया प्रकट नही होने दी । कुछ ही पलों मे जम्बूकुमार स्वय ही पिता के समक्ष उपस्थित हो गये । वे इस समय सर्वथा शान्त मुद्रा मे थे और अपने कार्य पर सन्तोष का भाव उनकी भगिमा मे स्पष्टतः दृष्टिगोचर हो रहा था । श्रेण्ठि ऋषभदत्त अपने पुत्र से निश्चित ही इस समय कुछ पूछना चाहते थे, किन्तु वे अपने प्रश्न को एक उचित आकार देने का प्रयत्न कर ही रहे थे कि जम्बूकुमार ने स्वत. ही कथन का आरम्भ कर दिया। उन्होंने पिता को सम्बोधित करते हुए कहा कि मुझे आज पहली ही बार यह ज्ञात हो सका है कि हमारे राज्य मे दुर्भिक्ष के कारण कितनी विकट विपत्ति छायी हुई है । आज मैं भ्रमण के लिए निकला था। मैंने देखा कि राजगृह के प्रजाजन अकाल से अत्यधिक पीड़ित है और उनके प्राण सकट मे है । उन असहायो की यह दीन-दशा मैं देख नही सका, पिताजी ! और मैंने उनकी तनिक-सी सहायता कर दी है। अपने अन्नागार मे अपार भण्डार था । मैंने वह सारा अन्न असहायो मे वितरित कर दिया है। हमारा सग्रह ऐसी घोर विपत्ति में भी यदि प्रयुक्त न हो सके तो उसका प्रयोजन ही क्या ? उन बेचारो के तो जाते हुए प्राण ही लौट आये थे। उनके मुख पर जो सन्तोष का भाव आया था, उसे देखकर तो मुझे असीम प्रसन्नता हुई। यदि ऐसे समय मे भी जब लाखो जन भूख की पीडा से मृत्यु के ग्रास बन रहे हो, यदि हम अपने अन्न को सुर