________________
२० | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार
नही थे । ऐसी करुणा को वे अपूर्ण मानते थे, जब तक कि उपलब्ध साधनो का उपयोग कर यथासामर्थ्य सेवाकार्य न किया जाय । वे इन भूखो को अपने भवन पर ले आये । देखते ही देखते एक खासा जमघट लग गया। सभी ओर से याचना के स्वर उठने लगे । दुखी जन इस समय अन्न की नही वरन् अन्न के रूप मे प्राणो की ही भीख माँग रहे थे ।
इस समय पिता ऋषभदत्त कार्यवश नगर से बाहर गये हुए थे । जम्बूकुमार ने अन्न भाण्डार खुलवा दिया । सारा एकत्रित अद्ध उन्होंने इस भूखो मे वितरित करवा दिया । कुछ ही समय में भाण्डार रिक्त हो गया । लाखो प्राणियो की जीवन-रक्षा हो गयी — इससे जम्बूकुमार को अत्यन्त प्रसन्नता और सन्तोष का अनुभव होने लगा । भाँति-भाँति के आशीर्वाद और शुभ कामनाएँ करते हुए, अन्न लेकर ये दुखी जन विदा हुए। जम्बूकुमार उनके प्राणरक्षक हो गये थे- इसमे महान इस संसार मे किसी के लिए भला और कोई क्या होगा ।
जम्बूकुमार ने जो कुछ किया, इसमे उन्हे तनिक भी अनौचित्य नही लग रहा था। अत. पिता की अनुपस्थिति के कारण भी अपने कार्य से उन्हे किसी प्रकार की चिन्ता या भय नही था । कुछ ही समय मे जव श्रेष्ठि ऋषभदत्त लौट कर आया तो उसने पाया कि कुछ अन्न द्वार पर और कुछ आँगन में बिखरा पडा है । अनेक पद चिह्न मे यह आभास भी उसे होने लगा कि कुछ ही समय पूर्व यहाँ अनेक जन एकत्रित हुए हैं । तुरन्त मान हो गया कि यहाँ दुर्भिक्षग्रस्तो को अन्न-दान
उसे यह अनुकिया गया