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शंखनाद करते हुए कहते हैं - मामेकं शरणं व्रज - तुम मेरी शरण में चले आओ, उधर महावीर विनम्रता से कहते हैं - तुम अरिहंतों की शरण में चले जाओ। एक में मैं को प्रधानता दी गई है दूसरे में मैं को हटा ही दिया गया है।
महावीर ने जो मन्त्र दिया उसका प्रारम्भ नमस्कार से होता है - नमो अरिहंताणं.. । नमन अहंकार को झुकाने का तरीका है। महावीर एक राजकुमार थे और भली-भाँति जानते थे कि जब तक ईगो को गो नहीं कहेंगे, अपने अहम् को सर्वम् में नहीं बदलेंगे तब तक मन्त्र आत्मसात न हो सकेगा, धर्म आत्मसात नहीं हो सकता। इसलिए महावीर का धर्म मंदिर या स्थानक से शुरू नहीं होता । महावीर का धर्म विनम्रता से शुरू होता है। यह बहुत खास बात है। उनका धर्म गुरु से भी शुरू नहीं होता, महावीर का धर्म साष्टांग नमन से शुरू होता है। वे कहते हैं णमो - नम जाओ। णमो अरिहंताणं - यानी अरिहंतों को नमस्कार हो । वे चाहते तो अरिहंत शब्द पहले भी दे सकते थे लेकिन महावीर गहन वैज्ञानिक हैं। वे मन की चालबाजियाँ समझते हैं। इसलिए जानते हैं कि पहले मन को ठीक किया जाए । महावीर अरिहंतों को नमस्कार ऐसा नही कहते । वे कहते हैं - नमस्कार हो अरिहंतों को। शब्द का बड़ा चमत्कार है। शब्द को अगर पकड़ लें तो सीढ़ी पकड़ में आ जाती है। शब्द को न पकड़ पाए तो छलांग लगाने की कोशिश होती है।
नमन यानी समर्पण । पहले यह माथा झुके तो सही। सिर में जो अहंकार भरा है वह तो झुके । यह नहीं झुकता है तभी तो कहते हैं -
___बड़ा हुआ तो क्या हुआ, जैसे पेड़ खजूर,
पंथी को छाया नहीं, फल लागे अति दूर । अरिहन्त का रटन तो हो जाएगा पर अरिहन्त से मिलन न होगा। यह तो रास्ता ही ऐसा है कि 'शीष दिए गर प्रभु मिलें तो भी सस्ता जान।' यहाँ तो पहले शीष देने की बात है। ज्ञान तो बाद में मिलेगा पहले नमो तो सही। जब तक आम कच्चा (कैरी) रहता है तब तक ऊपर-ऊपर रहता है और कड़क भी, लेकिन जैसे ही पकने लगता है अपने आप झुक जाता है और मीठा भी बन जाता है। घड़े को पानी में उतारने पर अगर घड़ा पानी में झुकने को तैयार न होगा तो पानी घड़े में आएगा कहाँ से ? कहावत है - कम खाओ, गम खाओ, नम
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