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जब हमारी उम्र सत्तर-पचहत्तर के पास पहुँच जाए तब तो घर में संन्यासी बनकर रहना ही उत्तम है। संन्यास न ले सकें तो कम से कम घर में ही संन्यासी बनकर रहें। तब पारिवारिक, सांसारिक रिश्तों को नकार कर संत बन जाएँ, गृहस्थ-संत । घर में हैं, पर सबसे मुक्त । अब तो प्रभु-भजन, हरिभजन, ध्यान
और बुढ़ापे को सार्थक करने के लिए जीवन के संध्याकाल को धन्य करने का प्रयत्न करेंगे । अन्यथा कीचड़ के कीड़े ही बने रह जाएंगे और जीवन में अनासक्ति का कमल, मुक्ति का फूल नहीं खिल पाएगा। ऐसे में उसने पत्नी, बच्चों और अधिक हुआ तो माता-पिता का भला किया लेकिन स्वयं का कितना भला किया ? उसने अपना आध्यात्मिक कल्याण कहाँ किया ? सामाजिक सेवाओं के पवित्र कार्य भी करते होंगे पर एक उम्र की सीमा तक, उसके बाद तो सामाजिक गतिविधियों में भी हस्तक्षेप बंद और शेष जीवन को विशुद्ध रूप से स्व-कल्याण
और प्रभु भजन में लगाएँ। साधु-संतों के लिए भी जो वाहन से चलते हों या पैदल सभी के लिए कहना चाहूँगा क्योंकि जो उम्रदराज हो गए हैं वे पैदल तो चलते नहीं हैं व्हील-चेयर और ठेलेगाड़ी पर चलते हैं, उनके लिए विशेष अनुरोध है कि अगर वे साठ वर्ष के हो गए हैं तो समाज की चिंता छोड़ें, चातुर्मास की व्यवस्था छोड़ें और कहीं भी शहर से दूर शांत, सौम्य स्थान का चयन कर लें, जहाँ वे शेष उम्र को प्रभु भजन के लिए, स्व के संयम के लिए, विशुद्ध तप-त्याग के लिए, आत्म-कल्याण के लिए समर्पित करें। हम सभी को अपने-अपने जीवन को धन्य करना होगा। मन में अगर ऊपर उठने का, आध्यात्मिक सौन्दर्य प्राप्त करने का, आध्यात्मिक सत्य की प्राप्ति का कोई सपना हो, लक्ष्य हो तो हमें जीवन के लिए कुछ फैसले करने होंगे और उन पर चलना भी होगा।
महावीर महापुरुष थे, उनके हजारों-लाखों अनुयायी थे, इसके बावजूद उन्होंने यह कहने का दुस्साहस किया कि केवल सिर मुंडा लेने से कोई व्यक्ति श्रमण नहीं हो जाता। केवल भूखे रहने से कोई तपस्वी नहीं हो जाता। यह क्रांतिकारी बात है क्योंकि जिसने हजारों व्यक्तियों को दीक्षा दी हो फिर भी वे ऐसा कह रहे हैं। यह हम सभी संतों और श्रावकों के लिए विचारणीय है। केवल ध्यान की बैठक लगाने भर से क्या ध्यान हो जाता है ? केवल मंत्रों का जाप कर
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