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पंचांगों के मुहूर्तों के आधार पर जिओ । जब तुम्हारी आत्मा कहती है ऐसा करो तो कर डालो। क्योंकि जो हो गया सो हो गया और जो सोचता रहा वह सोचता ही रह गया। दुनिया में कोई भी व्यक्ति सोच-सोच के आज तक कुछ नहीं पा सका। मन के अन्तर्द्वन्द्व में उलझकर व्यक्ति अपने समय को बर्बाद करता रहता है और जरूरी नहीं है कि तब जो भाव उठे थे वे बरकरार रह ही जाएँ। किसी के भीतर जो भाव हैं वे दूसरे दिन भी विद्यमान रहें, ऐसा ज़रूरी नहीं है ।
ईश्वर हमें वर्तमान देता है, आज देता है, आज के भाव देता है इसीलिए हम आज को Present कहते हैं । Present मतलब उपहार, यह वह हमें आज दे रहा है। आज जो अच्छे भाव हैं अगर हम उनका अनुसरण कर सकते हैं तो आज ही कर डालें और अगर बुरे भाव उठ जाएँ तो उन्हें हमेशा कल पर टालने की आदत डालें, ताकि हमारे द्वारा अशुभ कम हो और शुभ आज और अवश्य हो ।
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छठा धरातल ‘संन्यास' का है । धन्य भागी हैं वे लोग जो संन्यासी हैं, संत - जीवन धारण करते हैं । वे बाहर से भी मुक्त हुए और भीतर से भी मुक्त हुए। संन्यास हमें स्वाधीनता, स्वतंत्रता देता है । व्यक्तिगत रूप से मुझे हिंदू धर्म की संन्यास परम्परा अच्छी लगती है क्योंकि वहाँ पर पूरी स्वाधीनता है । मैंने जिस परम्परा में संन्यास लिया है वहाँ संन्यास लेने के बाद पता चला कि यहाँ स्वाधीनता कम और पराधीनता ज्यादा है, बंधन अधिक हैं। समाज और सामाजिक मर्यादाओं की इतनी ज्यादा बंदिशें नज़र आने लगीं कि मुझे अहसास होने लगा कि असली संन्यास वही है जहाँ व्यक्ति को स्वाधीनता मिल गई कि वह अपने अध्यात्म के धरातल पर जी सके । हरि को जैसे भजना है भजो । अब तुम मुक्त हो और अपने बोध से मुक्ति को जीना है । यही सच्चा संन्यास है अन्यथा बंधन तो गृहस्थ में थे ही। संन्यास में आने के बाद भी वही बंधन जारी रहे तो संन्यास कहाँ हुआ ? एक घेरा छोड़ा, दूसरे में आ गए। बैल ने एक खूँटा छोड़ा दूसरा धारण कर लिया । इससे कुछ फर्क नहीं पड़ता है।
आत्मभाव और अहोभाव में जीने वाला व्यक्ति ही संन्यासी होता है । जो अपनी भाव - दशाओं में, आत्म- दशाओं में उन्नत आत्म-चिंतन करते हुए, उन्नत आत्म-दशा को रखते हुए ईश्वरीय चेतना का ध्यान करता है
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