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कहा - मैं अनपढ़, अनगढ़ हूँ, जैसा आता है प्रभु को समर्पित कर देता हूँ। आप तो विद्वान मालूम होते हैं, आप ही मुझे सही प्रार्थना सिखा दीजिए।
तब पादरी ने व्यवस्थित शब्दों में, सुर-ताल सहित प्रार्थना-विधि बता दी। अब नाविक इस ढंग से प्रार्थना करने लगा, पर उसके भाव खो गए। वह उलझन में पड़ गया कि क्या करे क्योंकि उसकी मस्ती खो गई। कहते हैं तब प्रभु ने पादरी को स्वप्न में आकर निर्देश दिया कि वह पुनः जाए और कहे कि नाविक जो प्रार्थना करता था वही किया करे । प्रभु उसकी वही अटपटी भावयुक्त प्रार्थना से प्रसन्न थे। प्रभु तो शब्दातीत हैं, समयातीत हैं। कालातीत हैं, क्षेत्रातीत हैं। उन्हें शब्दों से नहीं केवल भावों से ही बुला सकते हैं। इसलिए सामायिक की बात पहले कही गई कि समत्व भाव में स्थित होओ, तब प्रभु को याद करो।
श्रीप्रभु ने सुन्दर गाथा कही है - आरुहवि अप्परप्पा बहिरप्पा छंडिउण तिविहेण, झाईजई परमप्पा, उवइटुं जिण वरिदेहिं - अर्थात् मन, वचन काया से बहिरात्म-भाव का त्याग करके अन्तर-आत्मा में आरोहण करो फिर परमात्मा का ध्यान करो।
ध्यान दें - मन, वचन, काया से बहिरात्म-भाव अर्थात् हमारा जो चित्त बाहर भटक रहा है इस बहिरात्म-भाव त्याग करके अन्तआत्मा में आरोहण करो। पहली शर्त है कि बाहरी भाव, बाहरी यात्रा उस पर अंकुश लगे और आत्म-भाव में हमारा प्रवेश हो । इसके बाद परमात्मा का ध्यान हो। परमात्मा का ध्यान कब होगा ? जब हम अन्तआत्मा में प्रवेश करेंगे। और अन्तआत्मा में प्रवेश मन, वचन, काया की गतिविधियों पर अंकुश लगाने से होगा। मन का मौन तभी सधेगा जब हम वाणी का मौन साधेंगे। हम तो अनर्गल बोलते ही चले जा रहे हैं फिर हमारा दिमाग शांत कैसे हो पाएगा। कोई व्यक्ति क्रोध पर क्रोध किए ही जा रहा है तो वह सामायिक करके समत्वभाव का अभ्यास कैसे कर पाएगा। अगर हम शांति के उपासक बनना चाहते हैं तो हमें शांति भरे शब्दों का इस्तेमाल करना चाहिए। श्रीप्रभु का संकेत है कि हमारा दूसरा आवश्यक है - अरिहंत प्रभु की, सिद्ध प्रभु की, ब्रह्म तत्व की, परमपिता प्रभु की प्रार्थना करें।
तीसरा आवश्यक अर्थात् तीसरा नियम है - गुरुजनों को वंदन करना, उनका पूजन करना। यह आवश्यक कर्तव्य है कि व्यक्ति जिनसे जन्मा है,
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