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के पास जाते, उन्हें आहार दिखाते कि आज हम यह लेकर आए हैं, गुरु अनुरोध करते कि अनुकूलता हो तो आप भी कुछ स्वीकार करें या जैसी आपकी आज्ञा हो। तब गुरु हमें आज्ञा देते - बेटा जाओ और आहार ग्रहण करो । यह केवल गुरुजनों को मान और सम्मान देने की बात है । उस दिन सौभाग्य उदित हो जाता जिस दिन हमारे लाए हुए आहार में से गुरु कुछ ग्रहण कर लेते । जहाँ अधिक शिष्य होते हैं उनमें से कुछ अलग-अलग स्थानों से आहार लेकर आते हैं और खाने के पूर्व सारा एकत्रित कर लिया जाता है फिर गुरु जैसा उचित समझते हैं अपने हाथों से आहार सबको देते हैं । गुरु स्वयं भी आहार लेने के लिए जाते हैं वह भी अपने शिष्यों को बाँट देते हैं । गुरु का दायित्व है कि वह अपने शिष्यों को खिलाये और शिष्यों का कर्त्तव्य है कि गुरु को समर्पित करने के बाद ही ग्रहण करे ।
घर में जो बुजुर्ग होते हैं उनका दायित्व है कि वे बहुओं का, बच्चों का ख़याल रखें और जो भी सामग्री लाते हैं - फल, सब्जी, कपड़े आदि अपने बच्चों को दें। और अगर बच्चे कुछ लेकर आते हैं तो उनका फ़र्ज़ है कि वे बड़ों को समर्पित करें । आजकल का ज़माना केवल अपने-अपने का हो गया है - मैं, मेरा पति और मेरे बच्चे । घर के अन्य लोगों का तो विचार ही नहीं आता है और यहीं से मनमुटाव और घरेलू झगड़े शुरू हो जाते हैं, तनाव बढ़ जाते हैं। वहीं अगर सास अपनी बहू का, बहू सास का ध्यान रखे तो प्रेम का आविर्भाव होता है, एक दूसरे के प्रति आदर का भाव जगता है।
अपनी दीक्षा के पूर्व मैंने जयपुर में साध्वीश्री विचक्षणश्री जी को देखा । उनकी लगभग पैंतालीस-पचास शिष्याएँ थीं, पर वे उन सभी को अपने हाथों से आहार परोसती थीं। आहार कहीं से भी आया हो, सारा आहार एक साथ एकत्रित कर लिया जाता, फिर साध्वी जी अपने हाथ से सबको परोसतीं । कोई भी शिष्या साध्वी अपने हाथ से नहीं लेती थी। अगर खाना बच जाता तो दो-दो कौर अपने हाथ से सबको खिला देती थीं। अगर कोई कहता कि पेट भर गया है तो उसे जवाब मिलता कि चार कौर कम खाया करो ताकि गुरु के द्वारा दिये गए दो कौर खाने का सामर्थ्य रख सको। कभी ओवर डोज़ मत करो। ऊनोदरी-तप यानी कम खाने की तपस्या हमारे जीवन में ज़रूर होनी चाहिए। यह भी गुरु की मान-मर्यादा है।
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