Book Title: Mahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 325
________________ जीवन भी तभी तक चलता है जब तक आयुष्य का तेल जुड़ा रहता है। माटी का मूल्य नहीं है, बाती का भी मूल्य नहीं है, वे सहयोगी हो सकते हैं लेकिन दीपक में भूमिका तेल की है। तेल हमारे जीवन के संस्कार हैं, वासनाएँ हैं, इच्छाएँ हैं, भावनाएँ हैं, प्रकृति है। इसलिए जीवन का दीपक बार-बार जलता और बुझता है। हमें प्रकृति को देखकर जानना और समझना चाहिए कि कोई बीज, बीज नहीं रहता वह बरगद भी बन सकता है और बरगद सदा बरगद नहीं रहेगा वह बीज भी बन सकता है। यह चक्र चलता रहता है । इसी तरह जन्म से मृत्यु और मृत्यु से पुनः जन्म। यह स्वाभाविक व्यवस्था है। प्रकृति के सानिध्य में रहकर ही हम मृत्यु के प्रति अनासक्त हो सकते हैं, निर्भय हो सकते हैं । प्रकृति की व्यवस्था है कि अगर सुबह सूरज उगता है तो साँझ को ढलता है और जिसने भी सूरज के उगने और ढलने को धैर्यपूर्वक समझ लिया इसके बाद व्यक्ति अपने जन्म और मरण के प्रति भी सहज हो जाता है। अगर ऋतुएँ बदल रही हैं तो इन बदलती हुई ऋतुओं को भी इन्सान देखे ताकि वह समझ पाए कि गर्मी कभी सर्दी में, सर्दी कभी गर्मी में बदल जाती है। हमारा जीवन भी कभी ऐसे ही मृत्यु जन्म में और जन्म मृत्यु में बदल जाता है । व्यक्ति की विजय यही है कि वह अपनी मृत्यु को जीत ले या मृत्यु के प्रति सहज बन जाए अथवा अपनी मृत्यु के प्रति अनासक्त हो जाए। मृत्यु ही तो है जो हमें बार-बार जीवन की ओर खींचती है क्योंकि मरने से भय लगता है। मैं कोई मृत्यु की प्रार्थना नहीं कर रहा हूँ, न ही प्रार्थना करने से मृत्यु आती है। यह भी नहीं है कि जीने की प्रार्थना की जाए और जीवन ही आए । सब कुछ प्रकृति की व्यवस्था है जो क्रमबद्ध रूप से चलती है। जन्म भी, मृत्यु भी, संयोग भी, वियोग भी, खिलना मुरझाना भी, मिलना और बिछुड़ना भी । जिसे यह समझ में आ गया कि मिलने के साथ बिछुड़ने का सत्य जुड़ा हुआ है वह व्यक्ति प्रेम तो कर सकेगा पर मोह और ममता में अंधा नहीं होगा। जो व्यक्ति मोह और ममता में अंधा हो जाएगा उसकी हालत धृतराष्ट्र जैसी हो जाएगी जिसकी संतान दुर्योधन और दुःशासन जैसी ही बनेगी। - जीवन को जीना सौभाग्य है, ईश्वर का प्रसाद है लेकिन मृत्यु से भयभीत होकर जीवन से चिपके रहना अंधा मोह है। सहज रूप में जीवन जिएँ और जब मृत्यु आने लगे तब उसे भी सहज रूप से स्वीकार कर लें। क्योंकि मृत्यु तो जीवन ३१४ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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