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पर हमें जनम-जनम तक अज्ञान का ही पोषण करते रहना पड़ेगा, जनम-मरण की धारा से बार-बार गुजरते रहना पड़ेगा। ज्ञानी की मृत्यु उसका वर्तमान जीवन भी धन्य करती है और अगला जन्म हुआ तो वह 'कुलयोगी' होगा। जन्म के साथ ही उसमें बोधि की भावनाएँ, प्रखरताएँ, प्रज्ञा प्रकर्षिता होती है। अष्टावक्र, ध्रुव, प्रह्लाद, नचिकेता, अतिमुक्त जैसे लोग केवल एक जन्म में नहीं, जन्म-जन्मान्तर की साधना से सिद्ध और योगी बन सके। वे अज्ञानी की तरह नहीं ज्ञानवान की तरह मृत्यु-जन्म-मृत्यु का खेल खेलते रहे। नचिकेता तो मात्र आठ वर्ष की आयु में ही सिद्ध हो गए, आत्म-ज्ञान को उपलब्ध हो गए, यमराज के साथ संवाद करने में समर्थ हो गए। यमराज से ऐसे प्रश्न किए कि वह भी आश्चर्य में पड़ गया। ऐसा सामर्थ्य आठ वर्ष के बालक में तभी हो सकता है जब वह पूर्व जन्मों से ज्ञान का अकूत ख़ज़ाना लेकर आया हो। कोई भी व्यक्ति एक ही पल में मुक्त नहीं हो जाता। जन्म-जन्मान्तर की साधना से ही कोई योगी मुक्त हो पाता है। केवल मोक्ष और मुक्ति की बातों से कोई मुक्त नहीं हो सकता। भगवान तो साँप और बिच्छू का रूप धरकर आ जाते हैं लेकिन व्यक्ति डरकर भाग जाता है। उसमें अभी निर्भयता आई ही नहीं। ____ मैंने हम्पी की गुफाओं में साधना की है जहाँ कभी सहजानंदघन जी ने भी साधना की थी, वहाँ मुझे बताया गया कि कई लोगों ने उनके साधना-काल में आसपास से साँपों को जाते हुए कई बार देखा है। सहजानंद जी ध्यानमग्न रहते थे और साँप पास में से आते-जाते रहते थे। ऐसे ही माउण्ट आबू में एक योगी हुए हैं शांतिविजय जी। वे वहीं गुफाओं में ध्यान-साधना करते थे। बताया जाता है कि उन गुफाओं के बाहर शेर, चीते घूमते थे, उन्हें बिना हानि पहुँचाए। वे निर्भयचेता हो गए थे, इसलिए उन्हें न किसी जंगली प्राणी से भय था न ही जंगली जानवरों को उनसे भय था।
हमें अज्ञानी का मरण चाहिए या ज्ञानी का इसका निर्णय स्वयं ही करना होगा। मृत्यु तो निश्चित है इसलिए साधक को तो अवश्य ही यह निर्णय कर ही लेना चाहिए। जो चीज़ तय है उससे कैसा भय? मृत्यु आएगी तो आनन्द है, कभी इस बात की शिकायत नहीं करेंगे कि जीवन और चाहिए। व्यक्तिगत रूप से मैं कभी किसी को शतायु होने का आशीर्वाद देना पसंद नहीं करता। क्योंकि जितना
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