Book Title: Mahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 339
________________ मिट्टी का है मोह कैसा, ज्योति ज्योति में समानी ।। तन का पिंजरा रह गया है, उड़ गया पिंजरे का पंछी । क्या करें इस पिंजरे का, चेतना समझो सयानी ।। घर कहाँ है धर्मशाला, हम रहे मेहमान दो दिन । हम मुसाफ़िर हों भले ही, पर अमर मेरी कहानी ।। जल रही धूं-धूं चिता, और मिट्टी मिट्टी में समानी । चन्द्र आओ हम चलें अब, मुक्ति की मंज़िल सुहानी ।। जब यही अन्तर्बोध हम सबके भीतर घटित होता है तब जन्म और मृत्यु दोनों के प्रति हम सहज हो जाते हैं। यही सहजता हमें अनासक्त बनाती है। अन्तर्मन में मुक्ति का कमल खिलाती है। तब हम धृतराष्ट्र की तरह अंधे न होकर कर्ण की तरह दानवीर हो जाते हैं, महावीर की तरह मुक्त हो जाते हैं, मीरा की तरह प्रभु -भजन में थिरकने लगते हैं। ‘पग धुंघरू बाँध मीरा नाची रे'। तब भीतर कोई नृत्य कर उठता है। हम चैतन्य प्रभु बन जाते हैं, चेतना के मालिक बन जाते हैं। कुल मिलाकर श्री भगवान हम सभी की मुक्ति और कल्याण चाहते हैं। हम सभी निर्वाण और कल्याण-पथ को उपलब्ध हों यही मंगल भावना प्रेमपूर्ण नमस्कार ! ३२८ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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