Book Title: Mahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 338
________________ पड़े। राजचन्द्र ने सोचा ये इसे कहाँ ले जा रहे हैं। वह भी छिपते-छिपाते पीछे से चला और श्मशान के पास एक पेड़ पर चढ़कर बैठ गया। उन्होंने शव को बँधा हुआ देखकर सोचा इसे बाँधा क्यों है? वहाँ लकड़ियाँ सजाई गईं, उस पर वह शरीर रखा गया, तूली लगाई गई, पिण्डदान दिया गया। सोचा आटे का पिण्ड दे रहे हैं लेकिन इसे कोई खा तो नहीं रहा है, घी डाला गया। आग जलने लगी वे सोचने लगे- अरे रे............ यह क्या हो रहा है, मेरे चाचाजी को तो जलाया जा रहा है। वे देख रहे हैं, शरीर जलकर राख हो गया और सब लोग वहाँ से चले गए। वे वहीं बैठे रह गए। लोग चले गए। जलाने वाले सैकड़ों जाते हैं पर अन्तर्बोध प्राप्त करने वाला कोई विरला ही होता है। श्मशानी-वैराग तो कई लोगों को आता है, पर कुछ समय बाद हम सब वैसे के वैसे हो जाते हैं जैसे कुछ हुआ ही न हो। देह तो जला दी गई, पर वह बालक राजचन्द्र अन्तर्ध्यान में लीन हो गया, चिंतन करता रहा और चिंतन करते-करते जीवन का मर्म समझ लिया कि यह जीवन है। जो जन्मा है एक न एक दिन अवश्य मरेगा, मैं भी मरूँगा। मैं भी मरूँगा'- इस बात ने राजचन्द्र की आत्मा को जगा दिया और तब एक महान साधक का जन्म हुआ जिनका नाम श्रीमद् राजचन्द्र था। ये वही हैं जिन्हें महात्मा गांधी ने कभी गुरु के समान आदर दिया था। बचपन में मैंने भी मृत्यु को करीब से देखा था, जब एक व्यक्ति की हमारे घर के सामने हत्या कर दी गई थी, वह लहूलुहान था और उसके पास कोई नहीं जा रहा था। मेरा मन भी द्रवित हो गया था पर हमें भी घर के अंदर बुला लिया गया था। पर मैं उस दृश्य को भुला न पाया और मनुष्य-मन की क्रूरता और मृत्यु के बारे में सोचता रह गया। एक बार और मैंने मृत्यु को देखा। जब मैं साधना में लीन था तब स्वयं की मृत्यु को घटित होते हुए देखा। गहन ध्यान के क्षणों में देखा कि मैं अपनी देह से अलग हो चुका हूँ। मेरी चेतना अपने शरीर को देख रही है। मैंने देखा कि लोगों ने मेरे शरीर को जला ही दिया है, मैं खुद उस आग को अनुभव कर रहा था। उसी समय एक मुक्त सिद्ध योगी मेरे पास आता है और कहता है- आओ चन्द्रप्रभु, हम लोग मुक्त विहार करके आते हैं, इस नश्वर देह का त्याग करते हैं। तब उस जलती हुई काया को देखकर यह गीत उभरा था अब कबीरा क्या सिएगा, जल रही चादर पुरानी । ३२७ www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only

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