Book Title: Mahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 326
________________ का उत्सव है। मैं तो जीवन को पवित्र तीर्थयात्रा के समान समझता हूँ। लोग भले ही पवित्र स्थानों की, पहाड़ों पर स्थित तीर्थों की यात्रा करते हों लेकिन जिसने जीवन को समझ लिया वह जानता है कि जीवन भी तीर्थयात्रा के समान ही होता है। जन्म के साथ यह यात्रा शुरू होती है और मृत्यु पर इस यात्रा का समापन होता है। जिसे इस बात का अहसास हो जाए वह भला मृत्यु से क्यों डरेगा। दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं - मृत्यु से निर्भय और मृत्यु से भयभीत। मृत्यु से डरने वाले हमेशा इसी प्रार्थना को करते हैं कि हे भगवान मुझे बचाना, संकट आ जाए तो मेरी रक्षा करना - ऐसे व्यक्ति कभी आत्म-विजेता नहीं बन सकते। मृत्यु से डरे हुए लोग जीवन से चिपके रहेंगे। मैंने कभी एक कहानी पढ़ी थी - श्री भगवान ने नारद से कहा- तुम पृथ्वी लोक में जाते रहते हो वहाँ से अगर किसी को लाना चाहो तो यहाँ बैकुंठ लोक में ले आना। शायद भगवान नारद को ज्ञान की कोई किरण देना चाहते थे। नारद पृथ्वी पर आए और जब वापस जाने लगे तो उन्हें भगवान की बात याद आ गई। उनकी नज़र किसी चौधरी के घर गई, वे उसी की छत पर उतर गए। नीचे गए तो देखा कि चौधरी पूजा-पाठ की तैयारी कर रहा था। नारद जी ने श्री भगवान का संदेश चौधरी को सुनाया और कहा- आओ भाई, चलो स्वर्गलोक चलते हैं। चौधरी ने कहा- अरे, ब्रह्मर्षि जी आप भी कैसी बात करते हैं। अभी तो मुझे बेटी ब्याहनी है, अभी तो कई मामले निपटाने हैं, कई तरह की लेन-देन करती है। अभी मैं स्वर्गलोक नहीं चल सकता, अभी मैंने मृत्यु के बारे में सोचा ही नहीं है और आप बैकुंठ ले जाना चाहते हैं। मुझे अभी नहीं मरना है। लेकिन नारद जी जानते थे कि यह जो बेटी की शादी करने की सोच रहा है, इसकी तो दो घड़ी बाद मौत होने ही वाली है क्योंकि वे उसी आदमी को ले जाना चाहते थे जो मरने ही वाला हो ताकि बैकुंठ ले जाएँ और अगर यमदूत आ गए तो वे नरकलोक ले जाएँगे। दो घड़ी बाद मृत्यु हो गई। नारद जी के साथ जाने को तो वह तैयार न हुआ। मरने के बाद वह पुनः उसी घर में पैदा हो गया, लेकिन कुत्ता बनकर। नारद जी पुनः आए कि शायद अब उसके चलने की इच्छा हो जाए, कूकर योनि मिल गई है शायद अब तो इस योनि से मुक्त होना चाहेगा, भगवान का सान्निध्य पाना ३१५ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342