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संबंध में विचार करने के लिए प्रेरित किया। हमने एक कहानी तो यह सुनी है कि किसी राजमहल में एक फ़क़ीर पहुँचा, पलंग लगाया और सो गया। कर्मचारी ने हटाया, पर न हटा। कर्मचारी ने कहा- महाराज, अगर आपको रुकना ही है तो किसी धर्मशाला में जाकर रुक जाइए। संत ने कहा- यह धर्मशाला ही है। दूर झरोखे में बैठा राजा यह सब देख-सुन रहा था। वह पास आकर बोला- महाराज आपको कुछ ग़लतफ़हमी हुई है। यह राजमहल है धर्मशाला नहीं। फ़क़ीर हँसने लगा और कहा - तुम कहते हो तो मान लेता हूँ कि यह राजमहल है, फिर भी मेरे लिए तो धर्मशाला ही है। राजा ने कहा- आप किस आधार पर इस राजमहल को धर्मशाला बता रहे हैं। फ़क़ीर ने कहा- मैं नहीं कह रहा, वास्तविकता भी यही है। अच्छा बताओ तुम कहाँ रहते हो? .
राजा ने कहा - यहाँ राजमहल में। फ़क़ीर ने पूछा - तुम्हारे पिताजी कहाँ रहते थे? राजा ने जवाब दिया - इसी राजमहल में। फ़क़ीर ने पूछा
उनके पिताजी के पिताजी कहाँ रहते थे ? राजा बोला
वे भी इसी राजमहल में रहते थे। फ़क़ीर ने पूछा
तुम्हारे परदादा और उनके दादा? राजा ने जवाब दिया - वे भी यहीं रहते थे। फ़क़ीर हँसा । उसने कहा- परदादा कहाँ हैं? राजा ने कहा
चले गए। फ़क़ीर ने पूछा
तुम्हारे दादा? राजा ने कहा
वे भी चले गए। फ़क़ीर ने पूछा - पिताजी ? राजा ने कहा - वे भी चले गए।
फ़कीर हँसा और कहने लगा- मूर्ख, जिस सराय में इतने लोग आकर चले गए और यह भी तय है कि इसी तरह तुम भी चले जाओगे, जहाँ इतने लोग आते हैं और चले जाते हैं तो यह धर्मशाला ही हुई न् ! सराय या धर्मशाला भी तो वही होती है जहाँ लोग आते हैं, रुकते हैं और ठहरते हैं फिर चले जाते हैं। अब तुम ही बताओ, अगर मैं इसे सराय न कहूँ तो क्या कहूँ ! फ़क़ीर तो इतना कहकर चला
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