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समझा है। चौदह गुण-स्थान महावीर ने बताये हैं । उनमें से चार गुण - स्थान संसारियों के, पाँचवाँ और छठा गुण-स्थान श्रावक और संन्यासी का और सातवें से चौदहवें गुण-स्थान तक पहुँचने का साधन सातवाँ गुण-स्थान है । किसी भी संसारी के लिए संन्यासी होना कठिन हो सकता है लेकिन संन्यासी का अप्रमत्त, जागृत होना बहुत बड़ी साधना है, तपस्या है, चुनौती है । रह-रहकर प्रमाद हमें अपने आगोश में ले लेता है और तब हम संन्यासी होकर भी संन्यासी नहीं हो पाते ।
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मुक्ति का मार्ग वह मार्ग है जिस पर चलते तो सैकड़ों लोग हैं पर कोई एकाध ही पहुँच पाता है । तभी तो कबीर कहते हैं - तेरा जन एकाध है कोई - हे प्रभु तुम्हारे नाम पर समर्पण तो सभी करते हैं लेकिन वास्तव में कोई एकाध ही तेरा शिष्य, भक्त बन पाता है । भीड़ तो 1 बहुत है, हर संत के हजारों चेले होंगे, लेकिन गुरु जिस पर विश्वास कर सके ऐसे दिल जीतने वाले शिष्य विरले ही होते हैं। संन्यास की ओर क़दम तो कई बढ़ते हैं लेकिन उनमें से अप्रमत्त-दशा क्रिया के प्रति, धर्म के प्रति, सिद्धान्तों के प्रति, उन सिद्धान्तों का पालन करने के प्रति, अपने आत्म-भाव के प्रति, अध्यात्म-भाव के प्रति विरले ही लोगों में होती है । शेष तो इसी दुनिया के राग-रंग में या अधिक से अधिक वैराग में उलझे रह जाते हैं । इसीलिए चार तरह की एषणाएँ कहलाती हैं स्त्री - एषणा, पुत्र- एषणा, वित्त- एषणा और लोकेषणा अर्थात् संसार की चाह । स्त्री, पुत्र, धन की चाहत छोड़नी कठिन है, फिर भी अनेकों इसे छोड़कर साधना - मार्ग की ओर आए हैं । फिर भी संत बन जाने के बाद भी संसार की एषणा, भवतृष्णा, लोकेषणा, लोकतृष्णा इससे उबर पाना चुनौती बन जाता है । भगवान इसका मार्ग बताते हैं - अप्रमाद । सामने पूर्व है, पीछे पश्चिम है । उगते सूर्य को देखना है तो अप्रमाद दशा को धारण करना होगा और डूबते सूरज को देखने लिए प्रमाद है ही । प्रमाद मृत्यु का और अप्रमाद अमरता का मार्ग है । प्रमाद अवगुणों का पिता है, दरिद्रता की माँ है । प्रमाद अर्थात् सुस्ती । प्रमाद के जरिए संन्यासी तो क्या मुक्ति को पाएगा एक विद्यार्थी भी विद्यार्जन नहीं कर सकता । सुस्त व्यक्ति क्या करेगा ?
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