Book Title: Mahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

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Page 311
________________ तुलसीदास को झिड़का तो वह झंकृत हो गया। जब उसने यह सुना कि जितना प्रेम तुम्हें काम के प्रति है अगर उतना ही प्रेम राम के प्रति होता, जितना प्रेम नारी से है उतना ही अगर नारायण से होता तो ? बस तुलसीदास जाग गए। एक भोगी आत्मा संत-आत्मा बन गई । व्यक्ति को सचेतनता तभी उपलब्ध होती है जब जीवन में इस तरह की कोई ठोकर लगती है। कुंती को जब प्यास लगी तो उसने अपने पुत्रों से पानी लाने को कहा। एक पुत्र जाता है, तालाब के किनारे पर आकाशवाणी होती है - सावधान, कोई भी इस पानी को मत छूना । अगर छुआ तो पत्थर बन जाओगे । उसने ध्यान न दिया और पानी छू लिया और छूते ही पत्थर का बुत बन गया। दूसरा भाई आया, वह भी बुत बन गया। तीसरें, चौथे की भी वही हालत हो गई। जब युधिष्ठिर आया तो पुनः आकाशवाणी हुई कि अगर पानी को छुआ तो जो हालत तुम्हारे चार भाइयों की हुई है वही तुम्हारी भी होगी। युधिष्ठिर खड़ा हो गया और पूछता है कि आप क्या कहना चाहते हैं ? आवाज़ कहती है कि - मेरा एक यक्ष- प्रश्न है । और तब एक यक्ष प्रगट होता है । यक्ष-प्रश्न उसे कहते हैं जिसका कोई उत्तर न हो लेकिन युधिष्ठिर ने यक्ष द्वारा पूछे गए सारे प्रश्नों का समाधान दिया। पूछा गया कि अज्ञान क्या है ? तो उत्तर मिला कि इन्सान एक ही पत्थर से ठोकर खाता है फिर भी बार-बार ठोकर खाता रहता है जैसे मेरे चार भाई । यक्ष प्रसन्न होता है । यही तो जीवन का भी मर्म है कि हम लोग एक ही पत्थर से बार-बार ठोकर खाते हैं फिर भी जग नहीं पाते । जो जग जाता है वह बुद्ध, संबुद्ध और जागा हुआ इन्सान कहलाता है शेष तो सब मूर्च्छित हैं ही। ऐसे मूर्च्छित लोगों के लिए भगवान महावीर ने एक शब्द प्रयोग किया है - 'प्रमत्त' और आत्म- जागृत लोगों को 'अप्रमत्त' कहा है । साधना का सम्पूर्ण सार 'अप्रमाद' शब्द में समाहित है 'अप्रमत्त' दशा । यह शब्द संसारी को सीधे समाधि की ओर ले जाता है । बीच के शब्द को हम संन्यास कह सकते हैं। संसार और संन्यास के बाद अप्रमाद दशा आनी चाहिए। संसार से जब वैराग्य जगा तो व्यक्ति संन्यासी बना। पर संन्यास का, साधना का मार्ग तभी सार्थक होगा जब अप्रमाद, अमूर्छित दशा, जागृत दशा उपलब्ध हो। हमने महावीर के 'गुण-स्थान' को ३०० Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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