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यानी विशेष प्रकार से देखना, जानना, समझना । जीवन का पहला सत्य व्यक्ति की श्वास है इसलिए सबसे पहले श्वास धाराओं के प्रति जागरूक हों।
दूसरा सत्य है - शरीर में उठने वाले अनुकूल और प्रतिकूल संवेदन, अहसास, फीलिंग्स के प्रति जागरूक होना।
तीसरा है - अन्तर्मन में उठने वाली धाराएँ, संस्कार, विकल्प, विचार, विकार, इनके प्रति जागरूक होना ।
___ यही वे तीन तत्त्व हैं जिनके प्रति अनुपश्यना या विपश्यना की जाती है । हम लोग जब संबोधि-साधना करते हैं तब लगातार तीन-चार दिन तक अपने शरीर के श्वास-प्रवाह को, श्वास की यात्रा को, संवेदनों को और चित्त के संस्कारों को जागरूकतापूर्वक देखने और समझने का प्रयत्न किया करते हैं। यही है सेल्फ इन्क्वायरी का तरीका। ध्यान में स्वयं को जाँचना, परखना कि मैं क्या हूँ, कैसा हूँ। ऐसा नहीं है कि अभी ध्यान किया और अभी क्रोध से मुक्त हो गए कि विषय-वासनाओं से मुक्त हो गए । व्यक्ति धैर्यपूर्वक अपने आपको समझने का प्रयत्न करता है कि उसकी यह स्थिति है, उसके चित्त में अभी क्रोध के तत्त्व हैं या अभी चित्त में विकार-वासना के तत्त्व हैं । जो भी है व्यक्ति खुद को धैर्यपूर्वक समझता है फिर अपने व्यावहारिक जीवन में जागरूकतापूर्वक जीने का प्रयत्न करता है ताकि बाहर के निमित्त उसके चित्त को, उसके संस्कारों को बार-बार प्रभावित और उद्वेलित न करें। क्योंकि साधक का लक्ष्य होता है मुक्ति, निर्वाण की प्राप्ति । उसका लक्ष्य होता है बुद्धत्व की, कैवल्य की प्राप्ति । जब लक्ष्य कैवल्य अर्थात् मैं केवल एक हूँ, उस एकत्व की प्राप्ति का जो मार्ग है उसी का नाम कैवल्य है, साधना का परिणाम है कैवल्य । अगर व्यक्ति एकत्व से भटक रहा है तो इसका मतलब है वह अपने लक्ष्य से भटक रहा है। अगर वह क्रोध कर रहा है. विषयवासनाओं में उलझ रहा है तो मतलब है कि वह अपने लक्ष्य से अलग हो रहा है। साधक का लक्ष्य है मुक्ति, इसके लिए उसे बार-बार याद करते रहना होगा, अपनी स्मृति को उसके प्रति बार-बार कायम करना होगा। अपनी सचेतनता को उसके प्रति बार-बार लगाना होगा। अपनी जागरूकता को, अपनी प्रज्ञा को, अपनी बुद्धि को, अपनी मेधा को बार-बार वहाँ पर साधना होगा।
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