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प्रमाद जीवन की फिजूलखर्ची है। हमने फिजूलखर्ची का अर्थ केवल पैसे से लगा लिया है लेकिन समय जो फिजूल खर्च हो रहा है उसकी तरफ ध्यान नहीं देते। इसलिए उत्तराध्ययन सूत्र में बार-बार एक वाक्य कहा गया है 'तुम क्षण भर भी प्रमाद मत करो' । हजारों गुरुओं ने लाखों शिष्यों के सामने इस वाक्य का प्रयोग किया होगा कि 'तुम क्षण भर भी प्रमाद मत करो' । समयं गोयम मा पमायए - हे मेरे प्रिय वत्स ! प्रमाद मत कर । आत्मज्ञानी अपने शिष्य को आगे बढ़ने के लिए बार-बार एक ही पंक्ति कहना चाहेगा - मा पमायए - प्रमाद मत करो। ‘प्रमादं मा कुरु' - प्रमाद मत करो।
जब-जब हम प्रमाद करेंगे संसार के उन झूठे रास-रंग में फँस जाएँगे जो हमारे भीतर तृष्णा को पनपाते हैं, विषय-वासनाओं को बढ़ाते हैं और हमें संसार की आसक्तियों में उलझा देते हैं। महावीर ने इस अप्रमत्त दशा को पूर्णता के साथ जिया। वे कहते हैं कि हाथ-पाँव तो बहुत बड़े हैं अगर तुम पलक भी झपकाते हो तो अप्रमाद - दशा होनी चाहिए अर्थात् जागरूकता और सचेतनता रहनी चाहिए । गौतम बुद्ध अगर बुद्धत्व तक पहुँचे, महावीर कैवल्य तक पहुँचे तो इन दोनों के लिए अप्रमाद ही रास्ता बना । अन्य किसी मार्ग के बारे में मतभेद हो सकता है पर अप्रमाद - दशा, आत्म-जागरूक दशा पर किसी भी स्थिति में कोई फ़र्क नहीं है। जैसा कि सातवाँ गुण-स्थान अप्रमाद दशा है तो छठे गुणस्थान तक व्यक्ति संन्यासी बन जाता है लेकिन संन्यास लेकर भी दुनिया का मोह नहीं छूट पाता। पत्नी का मोह छूट जाता है पर पंथ का मोह पैदा हो जाता है। दुकानदारी छूट जाती है पर शास्त्रों का व्यामोह पैदा हो जाता है, पुत्र छूट जाता है पर गुरु पकड़ में आ जाता है। अप्रमाद दशा व्यक्ति को हर वक्त
आत्म-भाव की ओर तत्पर बनाए रखती है। तब वह प्रत्येक कार्य करते हुए भी जागरूक रहता है। इसीलिए जोर देकर कहा गया है कि जो प्रमादी है वह हिंसक होता है, उसे हर ओर से भय होता है। अप्रमादी निश्चित ही अहिंसक और भयहीन होता है, उसे किसी तरह का भय नहीं रहता। उससे किसी भी प्राणी का, चींटी तक का भी वध नहीं होता। सड़क पर चलते हुए चींटी मरी या न मरी यह महत्त्वपूर्ण नहीं है बल्कि महत्त्वपूर्ण है कि चलने वाले ने जागरूकता के साथ कदम बढ़ाया या बेहोशी के साथ । बेहोशी के साथ जीने वाला संन्यास लेकर
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