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भगवान युद्ध के मैदान में कहनी शुरू कर देते तो तीन दिन में पूरी न होती। मुझे तो लगता है उन्होंने गीता को शाब्दिक रूप से कम और मानसिक तरंगों के रूप में अधिक स्थापित कर दिया होगा । जो उन्होंने कहा है वह मानसिक तरंगों के रूप में सीधे अर्जुन के भीतर स्थापित कर डाला । अर्जुन को सद्बुद्धि आई । अगर श्रीकृष्ण सारा उपदेश वहीं देते, सारा विराट स्वरूप वहीं दिखाते तो पूरे महाभारत का कायाकल्प हो जाता, सभी को सद्बुद्धि मिल जाती। पर श्रीकृष्ण ने अर्जुन को मानसिक तरंगें दीं और अन्तरात्मा में सारे दर्शन करा दिए, अन्तरात्मा में सारा बोध दे दिया। वो तो मानव मात्र को समझाने के लिए उस संवाद को फिर शब्दों में ढाल दिया गया, ताकि जो मानसिक तरंगें प्रभु ने अपने मित्र के भीतर स्थापित की थीं वे तरंगें मानव मात्र का कल्याण कर सकें । श्रीकृष्ण प्राणी मात्र के कल्याण-मित्र बन सकें इसलिए शब्दों में, गीतों में, काव्य में, श्लोकों और दोहों में ढालकर मानव मात्र के लिए परोस दिए गए।
गुरुजी अगर बात करते हैं तब भी ठीक और बात नहीं करें तब भी उनके पास जाकर बैठो। उनकी समाधि, उनकी शांति काम करेगी। उनकी शांति ऐसा चमत्कार करेगी कि आपकी अशांति दूर हो जाएगी। मन की अशांति, मन का अज्ञान कम हो गया। हम बोलने, बतियाने के आदी हैं पर एक गुरुजी कितनों से बोलें। गुरु के पास बैठना ही संगत है, सत्संग है, वही अपना काम करता है । गुरुजी ने जो कह दिया उसमें प्रश्न नहीं, वह अंतिम शब्द हो जाए । गुरुजी को सलाह नहीं, वे कहें और हम पालन करें। तभी तो आज्ञाकारी शिष्य कहलाएँगे । तभी आज्ञाकारी पुत्र की तरह सम्मान होगा । पिता अगर पुत्र से कुछ न भी बोल पाए तो भी पास में बैठने से भी वात्सल्य उमड़ता है। पति-पत्नी हर समय तो बातें करते नहीं रह सकते लेकिन उनका पास में बैठना भी प्रेम - मोहब्बत का अहसास करा रहा है, एक सुकून दे रहा है । मौन का भी आनन्द लो, इसका भी स्वाद चखो ।
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अज्ञान को तोड़ने के लिए तीसरा काम है ध्यान करना । ध्यान करेंगे तो आत्मज्ञान होगा, स्वयं का ज्ञान होगा, शरीर का ज्ञान, चेतना का ज्ञान, अपनी-अपनी प्रकृति, अपने-अपने गुण-धर्मों का ज्ञान होगा। इस ज्ञान से ही अज्ञान की कारा कटेगी। जिस ध्यान को धरकर महापुरुषों ने ज्ञान पाया हम भी
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