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आए और व्यक्ति के आध्यात्मिक कल्याण, आत्म-विकास के लिए प्रवचन और उपदेश दिए। हज़ारों पुस्तकों के रूप में उन सत्पुरुषों की दिव्य वाणी गुंजित है। आज भी हम उन्हें पढ़ते हैं और उनसे रोशनी पाने का प्रयास करते हैं।
हम अगर जीवन के मूल तत्त्व तक पहुँचना चाहते हैं तो व्यावहारिक रूप से जानें कि यह क्या है। सामान्यतः मनुष्य की चेतना, इसकी अन्तर्-आत्मा का मूल केन्द्र हमारा हृदय है। हृदय का अर्थ शरीर का पंपिंग स्टेशन नहीं है, वरन् हमारे सम्पूर्ण वक्षस्थल में समाहित ऊर्जा का केन्द्र ही हमारी अन्तआत्मा और चेतना का केन्द्र है। वक्ष-स्थल में हमारे आत्म-प्रदेशों का घनत्व है, हमारी ऊर्जा व चेतना का घनत्व है। इसीलिए लकवाग्रस्त या कोमा में जाने के बावजूद व्यक्ति जीवित रहता है, क्योंकि उसे ऊर्जा मिल रही है। जैसे ही ऊर्जा मिलनी बंद होती है सेल्स की ताकत क्षीण हो जाती है, व्यक्ति मृत हो जाता है। जो व्यक्ति उस हृदय के तत्त्व को पहचानता है, उसे जान लेता है, तब वह मृत नहीं, अमृत हो जाता है।
इस तरह हृदय हमारी अन्तआत्मा का मूल केन्द्र है लेकिन उसकी ऊर्जा, उसका चैतन्य-प्रवाह और चैतन्य-प्रदेश हमारे पूरे शरीर में व्याप्त है। चींटी के शरीर में चींटी जितना और हाथी के शरीर में हाथी के शरीर के प्रमाण के अनुसार इस ऊर्जा और घनत्व का प्रवाह रहता है। इन्सान के शरीर में इंसान के शरीर के अनुसार ही चेतना का घनत्व होता है। जब व्यक्ति यहाँ से मुक्त होता है, निर्वाण को उपलब्ध होता है तब वह जिस आकार में, जिस रूप में होता है उसकी चेतना का घनत्व अनंत ब्रह्माण्ड की ओर उड़ने लगता है तब वह मरणधर्मा शरीर के आकार का ही होता है। यह तो आत्मा के रूप और आकार की बात है। जहाँ तक आत्मा के अस्तित्व की बात है यह व्यक्ति के जन्म से पहले भी होती है
और मरण के बाद भी रहती है। अगर आत्मा नामक तत्त्व नहीं होगा तो जन्म व मरण भी नहीं होगा। व्यक्ति के शरीर के द्वारा जब किसी तत्त्व का निर्माण होता है तब जन्म होता है। यह न समझें कि नर व मादा के शुक्राणु अंडाणुओं के संयोग से जीवन का निर्माण होता है बल्कि उसमें जब आत्मा नामक तत्त्व प्रविष्ट होता है तब जीवन का प्रादुर्भाव होता है। डॉक्टर्स बताते हैं कि एक बार के निःसृत शुक्राणुओं में चार हजार जीवन देने की क्षमता होती है लेकिन इतने जन्म
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