Book Title: Mahavir Aapki aur Aajki Har Samasya ka Samadhan
Author(s): Chandraprabhsagar
Publisher: Jityasha Foundation

View full book text
Previous | Next

Page 304
________________ समय मुस्कुराती रहती थीं। न केवल मुस्कुराती रहतीं बल्कि उनके हाथ में माला रहती थी, वे जप, आराधना, तप जो उन्हें करना होता, करती रहतीं। निश्चित ही उनका शरीर-भाव गौण हो गया था, आत्मभाव प्रगाढ़ हो गया, उसी के कारण, इस भेद-विज्ञान के कारण वह साध्वी इतनी तप सकीं, व्याधि में भी समाधि के फूल खिला सकीं। अगर शरीर-भाव प्रमुख हो तो हम इसका पोषण करते हैं। इसके दर्द को दर्द समझ रहे हैं, इसके बिछोह को बिछोह समझ रहे हैं, इसके संयोग को संयोग समझ रहे हैं। अगर शरीर-भाव गौण हो जाए तो आत्मभाव में रमणता बढ़ जाती है। हम कलकत्ता में थे वहाँ मैंने देखा कि एक अस्सी वर्षीय बुजुर्ग जो आत्म-साधक थे, उनका नाम हरखचंदजी बोथरा था, किसी ने उन्हें बताया कि उनका उन्नीस वर्षीय पोता जो तालाब में नहाने गया था डूबकर मर गया। उस समय उनके चौबीस घंटे का पौषध व्रत लिया हुआ था। शाम के समय यह सूचना आई थी, हम भी वहीं थे, जवाब में वे यही कहते हैं कि - मेरे तो पौषध व्रत है मैं तो घर में आ नहीं सकता इसलिए आप लोगों को जो उचित लगे वह क्रिया कर लीजिए, उसकी अंत्येष्टि क्रिया कर लीजिए। घर के लोगों ने बहुत समझाया कि आपका जवान पोता नहीं रहा और आप धर्मस्थान पर यूँ बैठे हैं यह आपको शोभा नहीं देता। पन्द्रह-बीस मिनिट तक तो उन्होंने बात की फिर कहा - जो होना था सो हो गया, मैं तो मौन व्रत धारण करता हूँ। तब कहा गया कि कल सुबह तो आप आ जाएँगे न ? उन्होंने कहा - कल का कल देखेंगे। अभी अपनी धर्म - आराधना में, चित्त की समता में बीच का विघ्न क्यों डालूँ। घर के लोगों ने हमसे भी कहा, मैं उन्हें कहने भी गया तब ज़वाब में मुझसे भी इतना ही कहा - महाराजजी, जो होना था सो हो गया, मेरे घर जाने से अगर वह जिंदा हो जाए तो मैं ज़रूर चला जाऊँगा। मैंने कहा - जिंदा तो नहीं होगा। तो बोले - ठीक है तब मैं अन्त्येष्टि में शामिल होऊँ या न होऊँ क्या फ़र्क पड़ता है। मैंने देखा, मैं उस व्यक्ति का नाम ससम्मान लूँगा, यह बात लगभग पच्चीस वर्ष पुरानी है और मैंने अपने संन्यास काल के प्रारम्भिक दिनों में इसे जाँचा-परखा और देखा है। मैं स्वीकार करता हूँ कि मेरे जीवन में भेद-विज्ञान की जो थोड़ी-सी किरण मिली है उसके लिए साध्वीश्री विचक्षणश्रीजी का असर रहा। २९३ www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal & Private Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342