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हम उस आंशिक आत्मज्ञान की किरण के सहारे अपने पूरे जीवन में ज्ञान की रोशनी फैला सकते हैं, ज्ञान के दीप जला सकते हैं और जीवन को ज्ञानमय बना सकते हैं। इस तरह जनम-जनम से बनी मिथ्यात्व की काराओं को, मिथ्यात्व के अँधेरों को, अज्ञान के अँधेरों को काटने में सफल हो सकते हैं। सम्यक्त्व का बीजारोपण कर सकते हैं, सत्य-बोध का बीज-वपन कर सकते हैं।
चौथा काम यह करना है कि शरीर के जितने भी गुण-धर्म हैं उन गुणधर्मों को समझने का प्रयत्न करें। उनके परिणामों को समझने का प्रयत्न करें। शरीर का गुणधर्म है भूख लगना और भूख लगने पर जो-जो भी खाया उसके परिणाम पर गौर करो। जैसे ही परिणाम पर गौर करोगे हमारे भीतर एक आध्यात्मिक दष्टि उपलब्ध होगी. एक आध्यात्मिक क्रांति होगी। तब लगेगा इत्र लगाया था सुबह, पर शाम को तो शरीर से बास ही आ रही है। सुबह परफ्यूम लगाया था, पर शाम को तो बदबू ही आ रही है। शाम को तो सुस्वादु भोजन किया था, पर सुबह पता चला यह है शरीर और यह है भोजन का परिणाम । तब देह का धर्म स्वतः महसूस हो जाएगा। अन्ततः शरीर में डाले गए, शरीर पर लगाए गए हर तत्त्व का परिणाम दूषित ही होता है। और जब ‘दूषित ही होता है' यह बोध जग जाएगा तो खान-पान, पहनावा, भोग के प्रति हमारे मन में जो बार-बार उत्कंठा, लालसा, तमन्ना, आकर्षण, विकर्षण पैदा होते रहते हैं वे स्वतः शांत होने लग जाएँगे। हम उनके प्रति निरपेक्ष होते जायेंगे। खाना खाना ज़रूरी है पर उसकी लालसा मत जगाओ। गृहस्थ में जीना है, जिओ, पर दो दिन भी पत्नी न मिले तो मन को तड़फन से मत भरने दो।
इस तरह देह और आत्मा की भिन्नता का बोध होने पर व्यक्ति सहज हो जाएगा। मोह से छुटकारा पाना होगा तभी हम अनासक्त हो सकेंगे। मन का संकल्प ही मोह को छुड़वा सकता है। कहीं न कहीं से तो अनासक्ति का प्रारम्भ करना होगा तो क्यों न कपड़ों से ही शुरू किया जाए। हम संकल्प लें कि अमुक संख्या में ही वस्त्र रखेंगे। बीस ड्रेस या पचास साड़ी से ज्यादा परिग्रह नहीं रखेंगे। ज्यादा कपड़ों का परिग्रह रखने वाले कपड़ों के प्रति इतने आसक्त हो जाते हैं कि मरकर काकरोच बनते हैं। हम शरीर के परिणामों को समझें फिर वह खानपान, पहनावा या कुछ भी क्यों न हो । जैसे ही परिणाम की अंतिम परिणति
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