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हम पर हावी नहीं हो पाती । देह और आत्मा एक दिखाई दे सकती हैं लेकिन ज्ञानी के लिए शरीर और आत्मा दो तत्त्व हो जाते हैं । आपने नारियल देखा होगा, उसके ऊपर जटा होती है, फिर ठीकरी (कवर) होती है, फिर गिरी होती है और उसके अन्दर पानी होता है। दिखने में तो सारे एक साथ दिखाई देते हैं फिर भी सब अलग-अलग हैं। अगर भीतर के वासना - विकारों के पानी को, मन की लेश्याओं को निर्मल कर दिया जाए, उन्हें सुखा दिया जाए तो जटा लगी रह जाती है, ठीकरी पड़ी रह जाती है और भीतर की गिरी अलग हो जाती है और नारियल का गोटा बन जाता है।
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ज्ञानियों ने तपस्या की प्रेरणा दी है । तपस्या का अर्थ ही सुखाना है । किसको सुखाना है ? तन को नहीं भीतर की वासनाओं को सुखाना है । वासना का अर्थ केवल भोग नहीं है । पत्नी की इच्छा भी वासना है, पुत्र पाने की कामना भी वासना है, धन-दौलत, पद-प्रतिष्ठा, नाम कमाने की इच्छा भी वासना है । जो संत बन जाते हैं वे पत्नी-पुत्र, धन-दौलत, जमीन-जायदाद छोड़ आते हैं लेकिन नाम कमाने की वासना उन्हें घेर लेती है । वे भगवान के नाम स्थापित करने की बजाय जीवन भर अपने ही नाम को स्थापित करने में लग जाते हैं । यह संतों की मानसिक कमज़ोरी है, वासनाओं की कमज़ोरी है । लेकिन जो जागरूकतापूर्वक जीते हैं, आत्म जागृति को उपलब्ध कर लेते हैं वे शरीर को शरीर और आत्मा को आत्मा समझते हैं । ध्यान का मार्ग इसीलिए है ताकि व्यक्ति आधा घंटा बैठकर अपनी विपस्सना, अपनी अनुपश्यना कर सके, स्वयं के प्रति अपनी बोधि को कायम कर सके कि मैं साक्षी-भाव से देह की विपासना कर रहा हूँ। साक्षी-भाव से अपनी देह के गुण-धर्मों को समझ रहा हूँ। देह की संवेदनाओं का साक्षी हो रहा हूँ। Only witness. शरीर है तो इसकी संवेदनाओं को, चित्त है तो चित्त की संवेदनाओं को, चित्त की तरंगें हैं तो उन तरंगों को सहज रूप में जान रहा हूँ। जो भी है उसे देख रहा हूँ- देख रहा हूँ और देखते-देखते धैर्यपूर्वक अपने भीतर के तत्त्व को समझ रहा हूँ कि मैं क्या हूँ ।
शरीर और आत्मा की भिन्नता परिणामों के आधार पर भी समझी जा सकती है। जैसा कि हम मृत शरीर और जीवित शरीर के बीच फ़र्क़ करके देखें तो पता चल जाएगा कि क्या है शरीर और क्या है आत्मा ! क्या है जीवन और
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