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को इतनी सन्मति और सद्बुद्धि अवश्य दे कि हम उस प्रकाश में जान सकें कि क्या है ज्ञान और क्या है अज्ञान ? क्या है मोह और क्या है मुक्ति ? क्या है करने योग्य और क्या है त्यागने योग्य ? हम जीवन का आनन्द लें, पर जीवनभर गृहस्थ बनकर न रह जाएँ। गृहस्थ मिट्टी में जन्म लेकर मिट्टी में ही मिल जाता है, पर संन्यासी वह है जो जन्मता तो मिट्टी में है, जीता भी मिट्टी में है, पर आकाश में मरता है। मिट्टी ज़मीन पर पाँवों के नीचे होती है और आकाश सिर के ऊपर होता है। बस इतना ही फ़र्क है नीचे संसार, ऊपर संन्यास, समाधि और निर्वाण है। फिर चाहे कबीर हों या गोरख या नानक सभी हमें आकाश की ओर चलने की प्रेरणा देते हैं क्योंकि वे स्वयं आकाश-पुरुष हो गए।
___ अज्ञानी व्यक्ति अन्तरात्मा में नहीं देह में जीता है और आत्मा तथा देह को एक ही मानने लगता है। आत्मा के तीन चरण हैं - बहिरात्मा, अन्तरात्मा और परमात्मा । बहिरात्मा - जो केवल बाहर जीता है, अन्तआत्मा - जो भीतर जीता है, परमात्मा - जो बाहर और भीतर दोनों के द्वैत से ऊपर उठ गया, श्वेत कमल हो गया, स्वर्ण कमल हो गया। जो कमल की तरह मुक्त हो गया उसका नाम है परमात्मा । बहिरात्मा - शरीर और आत्मा को एक मानता है लेकिन शरीर और आत्मा में उतना ही फ़र्क है जितना कार और उसके ड्राइवर में है। फ़र्क समझने के लिए किसी शव की कल्पना कर लें और उसके साथ तुलना करके जान लें कि इसमें से वह तत्त्व निकल गया जिसके कारण वह चलता-फिरता था और व्यक्ति मर गया। आंशिक रूप से व्यक्ति को तब-तब आत्म-ज्ञान होता है जब-जब वह किसी को मृत देखता है। श्मशान में जलती लाश को देखकर ही सही, क्षण भर के लिए आंशिक ज्ञान तो ज़रूर होता ही है, पर अज्ञान का, मिथ्यात्व का, माया का अँधेरा इतना प्रगाढ़ है कि वह एक किरण अपना पूरा परिणाम नहीं दे पाती।
हाँ, कुछ लोग होते हैं जो इस किरण को, चिंगारी को पकड़ लेते हैं और अपने बुझे हुए दीए तो जला लेते हैं। कहते हैं एक पत्नी अपने पति को स्नान करवा रही थी। पीठ पर उबटन का लेप कर रही थी कि अचानक उसकी आँखों से दो आँसू टपके और पति की पीठ पर गिरे। पति के बदन पर जब दो बूंद गर्म पानी की गिरी तो उसने आँखें उठाकर देखा कि पत्नी की आँखें भरी हुई थीं।
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