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जिसके प्राणों में जितना कम, अनजाना आकाश, उसका उतना ही कम सार्थक पृथ्वी पर आवास । अगम कन्दरा क्रूर जल रहा, जहाँ दीप निर्धूम, सार्थक हैं वे नयन, सकें जो दीपशिखा को चूम । हैं प्रकाश के प्रति जो लोचन जितने स्नेहभीन, हैं उतने ही दीन हीन, वह खंडित मुकुर मलीन । वह पंचतल्ला पोत सदा, धारावाहिक अविराम, अगम शिखर से अगम सिंधु तक बहना इसका काम। तिरता जाता पोत प्राण का पाल बना आकाश,
दुग से जितना दूर नियामक, मन से उतना पास ।। कविता सुनो तो केवल कविता है, लेकिन कविता का मर्म यह है कि जो दिखाई दे रहा है केवल उतने पर ही अपनी नज़र केन्द्रित करेंगे तो दृश्यमान जगत में ही उलझकर रह जाएँगे । इसीलिए महावीर हमें उस जगत में ले जाना चाहते हैं जो अज्ञात भी है और अज्ञेय भी। धर्म भी अज्ञात और अज्ञेय की खोज है। हमें वह मन का मीत तो दिखाई देता है जो इस दुनिया में विद्यमान है लेकिन वह मीत दिखाई नहीं देता जो इस अदृश्य जगत के पार है। महावीर हमें वहाँ ले जाना चाहते हैं जो हमें साधारण संसार से ऊपर उठाकर असाधारण संसार का दर्शन कराए।
दुनिया में हमेशा ही दो विकल्प रहे हैं, जिनमें से एक राम के रूप में, दूसरा रावण के रूप में चुना जाता है। राम व रावण हजारों वर्षों से यही पथ प्रदर्शित कर रहे हैं कि मानव की एक भूमिका रावण का तो दूसरी भूमिका राम का निर्माण करती है। राम रावण का संघर्ष हर युग में रहा है। राम सत्य के, धर्म के, आत्म-विश्वास के प्रतीक हैं जबकि रावण अधर्म, असत्य, बलात्कार, विषयानुरागिता, कामान्धता का परिचायक है। मन की एक धारा इन्सान को राम
और दूसरी धारा रावण बनाती है। महावीर का लक्ष्य यह है कि इन्सान रावण से बदलकर राम बन जाए । व्यक्ति चाहे जिस कुल, परम्परा में जन्मा हो लेकिन उसे सत्य का बोध हो जाए तो जो रावण जीवन भर राम का विरोध करता रहा, वही रावण मरते समय राम का नाम लेकर ही मुक्त हआ। जिस व्यक्ति को
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