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इसलिए आपसे पूछा और आपने उन्हें बताया, बताने के बाद अगर उनका अन्तर्मन आपकी बात मानने को तैयार नहीं तो वह क्यों करे ? करना ज़रूरी नहीं है। अगर आपकी बात मानी ही जाए ऐसी अपेक्षा रखी अर्थात् आप दूसरे को अपने अधीन करना चाहते हो।
होश और बोधपूर्वक जीना मुक्ति-मार्ग का पहला और अंतिम सोपान है। कहने और सुनने भर से हम अपनी लेश्याओं से मुक्त नहीं हो सकते। लेश्याएँ कोई सिगरेट नहीं हैं कि आज पी रहे थे और छोड़ दी कि अब नहीं पिएँगे। लेश्याएँ तो रह-रह कर उदय में आती हैं। जब तक हम रहेंगे तब तक उदय में आती रहेंगी। जब तक हमारा जीवन होगा तब तक उदय में आएंगी।
और जब तक ये उदय में आएंगी तब तक हमें लगातार सतत रूप से होश और बोध को थामे रखना होगा। होश और बोध के बावजूद थोड़ा-सा गुस्सा आ ही गया, प्रशंसा सुनकर अहंकार पैदा हो गया। करना नहीं चाहते थे, पर हो गया। सब प्राकृतिक रूप से होता है, करना नहीं चाहते फिर भी हो ही गया तब ख़याल में आता है कि क्यों हो गया। स्वयं को पुनः शांत करने का प्रयास करते हैं। यह बार-बार होता है। धीरे-धीरे होश बढ़ता है, होश की चिंगारी बाती को ज्योतिर्मय करने का आधार बन जाएगी। तब हम समझने लगेंगे कि क्रोध करना व्यर्थ है, औचित्यहीन है, नरक का आधार है। क्रोध करने से हमारा मन अशांत होता है, उत्तेजनाएँ पैदा होती हैं। गर्मी चढ़ती है। भीतर में राम मिटता है और रावण जगता है। इस तरह जो होश जागता है वह हमें बोध देता है। बोध आने पर हम दृढ़ता से निश्चय करते हैं कि अब मैं क्रोध नहीं करूँगा, उग्र उत्तेजना नहीं करूँगा, उग्र प्रतिक्रियाएँ नहीं करूँगा। आपद आ ही गई तो उसे झेल लूँगा। नुकसान होगा तो होगा। मैं शांत रहने का प्रयत्न करूँगा। बार-बार हम संकल्प लेते हैं तब भी निमित्त के आने पर भूल जाते हैं लेकिन निमित्तों के बीत जाने पर पुनः-पुनः संकल्पित हैं। यह संकल्प हमारा बोध प्रगाढ़ करता है। ऐसा होते-होते बोध और होश वहाँ प्रवेश करने लगता है जहाँ लेश्याएँ जन्म लेती हैं। हमारा होश और बोध गहराई तक प्रवेश कर जाता है। जैसे ट्यूबवेल की खुदाई में धीरे-धीरे पृथ्वी में प्रवेश होता है तिस पर वहाँ पहले कीचड़ और पत्थर निकलते हैं पर अन्ततः शुद्ध पानी निकल ही आता है। यह शुद्ध पानी का
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