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निमित्त नहीं मिलते हैं। गुस्से का निमित्त मिलने पर भी अगर वह गुस्सा नहीं करता तब समझना कि वह पक्का संत है, वह आत्म-विजेता है। ____ मैं अपनी माँ से कहा करता था - पिताजी का स्वभाव अब बहुत अच्छा हो गया है, सीधा-सरल और नम्र हो गया है। माँ कहती थी - वे जैसा कहते हैं, वैसा तुम लोग करते हो इसलिए गुस्सा नहीं आता, तुम उनका कहना मत मानो, अभी पता चल जाएगा कि गुस्सा आता है या नहीं।
क्रोध, मोह, मान, माया, लोभ, अहं सभी की प्रकृति में होता है, किसी को कम या अधिक । क्रोध, मोह, वासना या अन्य तत्त्व कम या ज़्यादा हो सकते हैं, पर होते सभी की प्रकृति में हैं। जहाँ दीप जलेगा वहाँ उसके नीचे थोड़ा-बहुत अँधेरा तो होगा ही। हर प्राणी में कहीं-न-कहीं कोई-न-कोई कमी होती ही है। प्रकृति हमें कुछ अच्छाई और कुछ बुराई देकर भेजती है, अच्छाई जीने के लिए होती है और बुराई जीतने के लिए होती है। जीवन भर हमें बुराई पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न करना होता है और अच्छाई के आधार पर विकास के साथ जीना होता है। समत्वभाव के अभ्यास से हम धीरे-धीरे संत स्वभावी बन सकेंगे। सांसारिक जीवन त्यागकर संतवेश धारण करने से भी अधिक मूल्यवान संत-स्वभाव का स्वयं को बना लेना है। __पौन घंटे तक लगातार समत्व-भाव का अभ्यास करना, साँसों को समत्वभाव में ले जाना, शरीर को, चित्त को समत्व-भाव में स्थापित करना, उस समय घटी अच्छी-बुरी घटना से स्वयं को अप्रभावित रखना और इसके लिए निरंतर अभ्यास करना ही सामायिक है।
दूसरा आवश्यक कर्त्तव्य है - श्रीप्रभु की, तीर्थंकर अरिहंत प्रभु की उपासना करना, उनकी स्तुति-प्रार्थना करना । जिसने सामायिक व्रत धारण किया है उस दरमियान उसे अपना ध्यान, अपना चित्त श्रीप्रभु में लगाना चाहिए ताकि उसका सांसारिक मन अलौकिक प्रकाश से भर सके । अँधेरे में बैठकर जब व्यक्ति प्रकाश की कल्पना करता है, प्रकाश का ध्यान करेगा तब उसके भीतर प्रकाश साकार होगा। हमारे चित्त में तमोगुण, रजोगुण भरा हुआ है, सामायिक में बैठकर हम सतोगुण की कल्पना करते हैं, सतोगुण की भावना करते हैं और प्रभु की उपासना करते हैं ताकि हमारा तमोगुण कम हो। तामसिक चित्त में प्रभु
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