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देखकर अगर अपने मन को उद्वेलित किया या आर्तध्यान और रौद्रध्यान करने लगे तो हमारी सामायिक नहीं कहलाएगी। इसके विपरीत वह जीवन का बंधन बन जाएगी जबकि सामायिक मुक्ति का मार्ग है, उसे हम अपने लिए बंधन न बनाएँ ।
व्यक्तिगत रूप से मेरा मानना है कि संत लोग जिन्होंने जीवन भर की सामायिक ग्रहण कर ली है उन्हें भी कम-से-कम दो सामायिक तो प्रतिदिन करनी ही चाहिए। वर्तमान समय में साधु-साध्वियों का जो जीवन हो गया है उसमें सामाजिक जीवन, सामाजिक गतिविधियाँ इतनी अधिक शामिल हो गई हैं। कि उनकी धार्मिक आराधना बहुत कम हो गई है। श्रावक-श्राविकाओं की बातें सुनते, उनसे वार्तालाप करते हुए हीं उनका सारा दिन बीत जाता है। ऐसे में वे धर्म-आराधना नहीं कर पाते हैं । इसलिए उन्हें भी रोजाना सुबह-शाम एक या दो घंटे अलग से बैठकर सामायिक करनी चाहिए। दीक्षा लेते हुए तो जीवन भर का सामायिक व्रत ग्रहण कर लेते हैं पर इसका बोध विस्मृत हो जाता है। संत अगर सामायिक व्रत को याद रखेगा तो निश्चित ही अपनी धर्म-आराधना के लिए समय निकालेगा। हम कोई समाज कल्याण के लिए संत नहीं बने हैं, आत्म-कल्याण के लिए दीक्षा ग्रहण की है। आत्म-कल्याण करते हुए जितनी समाज-सेवा हो जाए, इन्सानियत की जितनी सेवा हो जाए उतना अच्छा है। जितना और जो हो जाए अच्छा है।
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इस संदर्भ में मेरा एक अभिमत और है कि दीक्षा व्यक्ति को पचास वर्ष की आयु होने पर ही दी जानी चाहिए। आजकल बाल-दीक्षा का फैशन-सा हो गया है, इस संबंध में लोग मुझसे पूछते भी हैं कि क्या बाल- दीक्षा होनी चाहिए ? मैं तो कहता हूँ पचास साल पर दीक्षा दी जानी चाहिए ताकि आप संसार को जीकर जान चुके होंगे, मन की तृष्णाएँ पूरी कर ली होंगी । व्यापार-धंधा, पैसा, पद, प्रतिष्ठा जो आपको करना था कर लिया। तब दीक्षा लेने के बाद मन में घर-गृहस्थी की लालसा नहीं रहेगी । नाम कमाने की लालसा भी न रहेगी, न ही कुछ करने की लालसा रहेगी । संन्यास ले लिया अर्थात् अब आप विशुद्ध रूप से अपनी मुक्ति और निर्वाण के लिए तत्पर हो गए। अब अगर पन्द्रह-बीस वर्ष के बच्चे को दीक्षा दे देंगे तो उसके सामने
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