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पहाड़ जैसी ज़िंदगी पड़ी है तो उसे प्रभु-भजन के अलावा भी बहुत से काम करने पड़ेंगे और अगर पचास वर्ष की आयु में दीक्षा ली है तो न उसे कोई सूत्र रटने हैं, न ही व्याकरण याद करना है, न ही संस्कृत पढ़ना है । वह तो बस प्रभु-भजन में लग गया। उसे तो एक नवकार मंत्र या गायत्री मंत्र भी आता है तो बस एक ही मंत्र से उसके जीवन का उद्धार हो जाएगा । प्रभु - भजन करते-करते वह पार लग जाएगा ।
मेरा अन्तर्मन तो मुझे यही प्रेरणा देता है कि अगर मैंने जीवन भर के लिए सामायिक व्रत ग्रहण किया है तो दिन में दो दफे मुझे यह बोध रखना चाहिए कि सामायिक है। सामायिक विस्मृत न हो जाए। गृहस्थ जो सामायिक करता है उसे हम कहते हैं, बताते हैं कि सामायिक करते समय किन-किन नियमों का पालन करना चाहिए। तो जो संत हैं उन्हें भी तो पालन करना चाहिए । सामायिक ज़रूरी है । जितना भी मन लगे सामायिक अवश्य करें । सामायिक करना पहला आवश्यक कर्त्तव्य हुआ । जीवन में कड़वी बातें तो सुनने को मिलेंगी ही, लेकिन सामायिक करते हुए समत्वभाव का निर्वहन दैनिक जीवन में करना होगा। कड़वी बातों का जवाब कड़वाहट से देने पर तू-तू, मैं-मैं शुरू हो जाती है और गड़बड़ियाँ होने लगती हैं। कबीरदासजी से पूछा गया कि मैना का स्वर इतना मीठा क्यों होता है ? कबीर ने ज़वाब दिया इसलिए मैना का स्वर मीठा है कि मैना शब्द ही यही करती है मै - ना, मैना, मैं नहीं हूँ, मुझमें अहंभाव नहीं है । समत्व भाव का मतलब है : मैं नहीं हूँ और विषमता का कारण है : मैं ही हूँ, मैं ही हूँ ।
समत्व-भाव, मिठास अभ्यास से आएगा । एक दिन में कोई जीवन से रोग निकल नहीं जाता है । अभी मुझे पढ़ने को मिला कि किसी व्यक्ति को कहीं जाना था। वह बस अड्डे पर पहुँचा । बस में सवार हो गया । पन्द्रहबीस मिनट तक बस नहीं चली तो उसने झल्लाते हुए बस कंडक्टर से कहाअरे भाई तेरा खटारा रवाना होगा कि न होगा ? कंडक्टर को फील हुआ, उसने कहा हां, भई पूरा कूड़ा-कचरा भर जाएगा तब रवाना होगा । हम जैसा बोलेंगे वापस वैसा ही सुनने को मिलेगा, यह दुनिया का रिवाज है । कोई कितना भी कहे कि उसे गुस्सा नहीं आता लेकिन तभी तक जब तक उसे
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