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दुनिया बहुत जल्दी स्वर्ग में बदल जाए। हम सभी दूसरे को तो अनुशासित देखना चाहते हैं लेकिन खुद...? हम दूसरों से अच्छी-अच्छी अपेक्षा रखते हैं, पर खुद कुछ करना हो तो ढीले-ढाले नज़र आएँगे। पति की अपेक्षा पत्नी से है, पत्नी की अपेक्षा बच्चों से है, बच्चों की अपेक्षा अपने दोस्तों से है लेकिन कोई भी व्यक्ति उन अपेक्षाओं पर खुद खरा नहीं उतरता। इसलिए महान लोग दूसरों से अपेक्षा नहीं रखते वरन् खुद ही उन अपेक्षाओं पर खरा उतरते हैं, खुद ही उनको जीते हैं।
अच्छे चरित्र का मालिक बनना है तो दूसरों को ज्ञान देने की अपेक्षा खुद ही अमल करें। हम लोग केवल सलाहकार न बन जाएँ । इस दुनिया में अच्छी बातें कहने वाले सैकड़ों हैं, सुनने वाले करोड़ों हैं, उस पर मनन करने वाले हजारों हैं, पर उसको जीने वाले..? तुलसीदास जी का एक पद बहुत मशहूर हैपर उपदेश कुशल बहुतेरे, जे आचरहिं ते नर न घनेरे ।
औरों को उपदेश देना हो, तो प्रत्येक व्यक्ति के लिए आसान है लेकिन खुद जीना हो तो? इसलिए मैं स्वयं अपनी कही हुई बातों को सदा आग्रहपूर्वक जीने का प्रयत्न करता हूँ। मेरा मानना है कि मैं किसी भी बात को तभी बोलूं जब मैंने खुद ने उसे कम से कम ५०% अपने जीवन में उतार लिया हो अन्यथा मुझे बोलने का कोई हक नहीं है। जिसे मेरे लिए अभी तक जीना संभव नहीं हो पाया तो दूसरों को कहने का क्या अर्थ होगा। जो स्वयं के लिए मुश्किल हो वही बात दूसरा करे यह कैसे संभव है। त्याग, धर्म, सिद्धान्तों के प्रति आस्था है, पथिक भी हैं, फिर भी नहीं जी पा रहे हैं फिर दूसरों से कैसी अपेक्षा ।
दर्शन, ज्ञान, चरित्र को मैंने सरल भाषा में कहने का प्रयत्न किया है कि सही-सही देखो, सुंदर-सुंदर देखो, सही-सही जानो, सुंदर-सुंदर जानो, सहीसही करो, सुंदर-सुंदर करो । महावीर का सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र मुक्ति की ओर बढ़ने के तीन सोपान हैं। मेरे विचार से मोक्ष या मुक्ति की ओर बढ़ने के लिए चार चरण होते हैं - पहला है - शांति मन में और व्यवहार में, है दूसरा सदाचार अपना आचरण ठीक रखो, तीसरा है - सदविचार - मन और दिमाग में उठने वाले विचारों को सही रखो, चौथा है - मुमुक्षा, मुक्ति की आकांक्षा, मुक्ति की अभिलाषा । अगर इन चार बातों
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