________________
मन और देह का गुण-धर्म यही है कि अगर उसे कोई तत्त्व प्रभावित करता है तो कुछ समय तक तो उसका प्रभाव हमारे तन, मन, वचन पर रहता है लेकिन जितना जल्दी हम स्वयं को दूसरे काम में लगा देते हैं तो मन किसी बालक की तरह दूसरे खिलौने में राजी हो जाता है। इस तरह हम कान, आँख, जीभ, स्पर्श और नासिका की सुखानुभूति और उसके प्रभाव से मुक्त होकर संयमित जीवन जी सकते हैं। जैसे कि गृहस्थ संयम ले सकता है कि वह सप्ताह में एक ही दिन उपभोग करेगा और छः दिन शीलव्रत का पालन करेगा। इस तरह भोग करते हुए भी व्यक्ति स्वयं को संयम के रास्ते पर ले जा सकता है।
चौथा संयम उपकरणों से जुड़ा है। हमारे जीवन के भौतिक सुख-साधन, जैसे + वस्त्र, बर्तन, मकान व अन्य सांसारिक वस्तुएँ जो जीवन को ऐश्वर्य प्रदान करती हैं उन पर नियंत्रण किया जा सकता है। जैसे - हम इतना ही परिग्रह रखेंगे इससे अधिक नहीं। ऐसा करके हम संसार में रहकर भी संन्यास का फूल खिला सकते हैं। घर में रहकर भी संत की तरह जिएँ अर्थात् उपभोग तो करें पर संयमित रहकर । माना कि महिलाओं के पास बेशुमार साड़ियाँ होती हैं फिर भी साड़ी खरीदने की इच्छा समाप्त नहीं होती। तो आप ऐसा कर सकती हैं कि स्वयं ही निश्चित कर लें कि इतनी साड़ियाँ रखेंगी। और जब नई खरीदें तो अपनी पहले की साड़ियों में से एक साड़ी दान में दे दें, किसी गरीब को या जरूरतमंद को दे दें। यह संयम होगा, दान भी होगा और भोग भी।
धर्म वह है जो व्यक्ति अपने मन के अनुरूप धारण कर ले। हो सकता है अभी इतना न छूट पाया हो कि हम उसका पूरी तरह त्याग कर दें। अगर त्याग हो गया तो यह पूर्णसंयम की श्रेणी में आ गया लेकिन जो पूर्ण त्याग न कर पाएँ वे कुछ तो अपनी सीमाएँ निर्धारित कर लें। संत न बन पाएँ तो क्या, सद्गृहस्थ की जो मर्यादा होती है उसे तो अपनाएँ। अणुव्रतों का पालन न कर सकें तो कोई बात नहीं लेकिन अपनी स्थिति के अनुसार कुछ तो संयम का अनुपालन करना ही चाहिए। अपने देहबल, मनोबल के आधार पर, परिस्थितियों के आधार पर निर्धारण होगा कि व्यक्ति कितना संयम अपने जीवन के साथ जोड़ सकता है। ___ऐसा न हो कि संत-महात्मा के कहने पर कुछ त्याग करने का संकल्प ले लिया लेकिन घर आते ही वह परेशानी का सबब न बन जाए । मन में तो असंयम
29. Jain Station International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org