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कब कौन गिर जाए । इसलिए सब सोच व्यर्थ है। हाँ, इतना कहा जा सकता है कि आज का हमारा दिन अच्छा रहा, अच्छे ढंग से जी गए । कल क्या होगा कुछ नहीं कहा जा सकता। हमारे जीवन में कब किस कर्म का उदय होगा, पता नहीं। कब किस पूर्वजन्म के कर्म का उदय हो जाए और वह कर्म हमें नीचे गिरा दे। जरा सोचें संत आर्द्रकुमार के बारे में।
अनार्य देश में रहने वाले आर्द्रकुमार भारत में रहने वाले अपने मित्र अभयकुमार से प्रेरित होकर संन्यास लेने को तत्पर हो गए। उन्हें जाति स्मरण ज्ञान (पूर्व जन्म का बोध) हो जाता है कि वे पिछले जन्म में भी संत थे। माता-पिता से नज़र बचाकर वे अपने महल से निकल पड़ते हैं और संन्यास ले लेते हैं। संन्यास तो उन्होंने ले लिया पर संन्यास के जीवन में उनके संबंध ऐसी स्त्री के साथ हो जाते हैं जो वहाँ कन्या रूप में खेलने के लिए आती है। कुछ लड़कियाँ जहाँ आर्द्रकुमार तपस्या कर रहे थे वहाँ अपना-अपना वर चुनो' खेल खेल रही थीं। किसी लड़की ने दीवार पर हाथ रखकर कहा कि यह मेरा पति, किसी ने वृक्ष के तने को, किसी ने टहनी को, किसी ने मंदिर की मूर्ति को अपना पति कहा । उन्हीं में से एक कन्या ने वहाँ साधनारत आर्द्रकुमार को छूकर कहा कि यह मेरा पति । यह बात सुनते ही वे चौंके कि मैं किसका वर, मैं तो ये सब झमेले छोड़कर आ गया हूँ। खैर, खेल था ख़त्म हो गया। संत चले गये। लेकिन वह लड़की जब थोड़ी और बड़ी हो गई तो पिता ने कहा - अब तुम्हारे लिए वर की तलाश करनी है तो वह झट से यही कहती है कि उसने तो अपना वर तलाश लिया है। मैंने तो किसी को अपना पति मान लिया है। पिताजी ने कहा - क्या बात करती हो ? तब लड़की ने सारा वाक़या बता दिया। पिताजी ने कहा – यह तो तुम्हारा खेल था, सच्चाई थोड़े ही है।
लड़की ने कहा - अगर खेल में भी किसी को स्वीकार कर लिया तो अब वही मेरा पति होगा। बहुत वर्षों के बाद संत पुनः उस नगर में आए। वह लड़की उनके पदचिह्नों को देखकर समझ जाती है कि यही मेरे पति हैं। संत को भी होश आ जाता है, बोध जग जाता है कि यह मेरे किसी पूर्व जन्म का ऐसा प्रारब्ध है, ऐसा कर्म का उदय है जो अब मुझे भोगना ही पड़ेगा। मेरा कर्म ही मुझे वापस यहाँ खींचकर लाया है। आर्द्रकुमार गृहस्थी में आ जाते हैं, एक संतान भी होती
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